Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४८४ः ११ः
दुःखनो जेना अंतरमां त्रास लागतो होय ने कोई पण प्रकारे तेनाथी छूटीने शांति मेळववा चाहतो होय ते जीव
खरेखरो आत्मार्थी थईने शांतिनो उपाय शोधे छे. आत्मानी शांति माटे गरजवान थयेलो ते जीव, प्रथम तो जगतमां
केवा केवा तत्त्वो छे तेने जाणे छे, अने तेमां पोते कोण छे ते पण जाणे छे. पछी पोतानो वास्तविक शुद्ध स्वभाव शुं छे
ते नक्की करीने अंर्तस्वभाव तरफ वळे छे, ने आ रीते ते जीव शांति प्राप्त करे छे.
जुओ, पोताना अंर्तस्वभाव तरफ वळीने तेनी अतीन्द्रिय शांतिना अंशनुं ज्यारे वेदन थयुं त्यारे ते जीव
जाणे छे के अहा! आवी शांतिस्वरूप ज मारो आत्मा छे, आ जे शांतिनुं वेदन थयुं ते मारा स्वभावमांथी ज आवेली
छे, ने मारो आखोय स्वभाव आवी शांतिथी भरेलो छे. आ जे राग–द्वेषादि विकारी भावो वेदाय छे ते वेदन मारा
स्वभावमांथी आवेलुं नथी, ते तो मारामां आरोपायेलुं छे; विकार मारा स्वभावभूत नथी पण उपाधिरूप छे. आ रीते
वेदनना स्वादनी भिन्नताथी विकारी भावो तेने पोताना स्वभावथी स्पष्टपणे जुदा जणाय छे. आथी, ज्ञानीने ते क्षणे
विकार वर्ततो होवा छतां, सम्यग्ज्ञानरूप विवेकज्योति पण साथे साथे वर्ती ज रही छे. एक तरफ शांतरसना समुद्र
समान शुद्धस्वभावने जाणे छे, ने बीजी तरफ मेला पाणीनां खाबोचिया जेवा विकारने जाणे छे; आम बंनेने जाणतो
थको, विकारनी तुच्छता जाणीने तेने तो छोडतो जाय छे, ने शुद्धस्वभावनी महत्ता जाणीने तेमां झूकतो जाय छे.–आ
उपायथी अल्पकाळमां ज समस्त दुःखोनो नाश करीने ते जीव परमआनंदस्वरूपमुक्ति पामे छे.
(लेखांक त्रीजो)
श्री पंचास्तिकाय गा. १०३ उपरनां पू.
गुरुदेवना प्रवचनोनो बीजो लेखांक आ ज
अंकमां छपायेल छे, त्यार पछीनो आ त्रीजो
लेखांक छे. चैतन्यना आनंदमां झूलती दशामां
संतोए आ शास्त्रो रच्यां छे. अंतरना
आनंदनी झलक बतावीने जगतने पडकार
कर्यो छे के अरे जीवो! थंभी जाव...बहारमां
तमारो आनंद नथी, तमारो आनंद तमारा
अंतरमां छे. अहा! बाह्यवेगे दोडता जगतने
पडकार करीने संतोए थंभावी दीधुं छे. अने,
आ वात झीलनार जीव केवो छे?–ए तो आ
प्रवचन ज स्वयं कहेशे.