शास्त्र लखाय..आवी रीते चैतन्यना आनंदमां झूलती दशामां संतोए आ शास्त्र रच्यां छे. अंतरना आनंदनी झलक
बतावीने जगतने पडकार कर्यो छे के अरे जीवो! थंभी जाव..बहारमां तमारो आनंद नथी, तमारो आनंद तमारा
अंतरमां छे. अहा! बाह्यवेगे दोडता जगतने पडकार करीने संतोए थंभावी दीधुं छे.
नथी; दुनिया पोताने गणे के न गणे तेनी एने दरकार नथी, जगतमां बीजानो संबंध रहे के न रहे तेनी सामे पण
जोतो नथी, एकाकी थईने पण पोताना आत्माने ज साधवा मांगे छे; आवो आत्मार्थी जीव ज्ञानी संतोना चरणनी
अतिशय भक्तिपूर्वक आ वात झीले छे. जेने आवी आत्मार्थीता होय तेने आत्मा समजावनारा गुरुजनो प्रत्ये
अंतरमां केटलो प्रमोद, भक्ति, बहुमान, उल्लास अने अर्पणतानो भाव होय! आत्मा समजावनार प्रत्ये विनयथी
अर्पाई जाय. अहो नाथ! आपने माटे हुं शुं–शुं करुं? पामर उपर आपे अनंतो उपकार कर्यो...आपना उपकारनो
बदलो माराथी कोई रीते वळी शके तेम नथी.
बतावे? अहाः आपे मारुं जीवन बचाव्युं, दुःखमां तरफडतो मने आपे ऊगार्यो,–एम उपकार माने.
दुःखोमां सेकातो थको आलस–विलस थईने तरफडीया मारे छे; त्यां धर्मात्मासंतो ज्ञानरूपी गारुडी मंत्रवडे तेनुं
झेर ऊतारी नांखे छे, ने तेने दुःखथी छूटकारानो उपाय बतावे छे. ते उपाय पामीने ते जीवने संतो प्रत्ये केटलो
उपकार आवे?–अहा नाथ! आपे मने जीवन आप्युं...अनंत दुःखमां तरफडतो मने आपे ऊगार्यो...सर्पना
झेरथी बचावनारे तो एक वार मरणथी बचाव्यो, परंतु आपे तो हे भगवान! अनंत जन्म–मरणना दुःखोथी
मने बचाव्यो.
नथी. जे जीव मोक्षार्थी छे तेने माटे ज संतोनो उपदेश छे. समयसारमां आचार्यदेव कहे छे के–
वळी श्रद्धवो पण ए रीते,
एनुं ज करवुं अनुचरण
पछी यत्नथी मोक्षार्थीए.
“मोक्षार्थीओ आ सिद्धांतनुं सेवन करो के हुं तो शुद्धचैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं; अने आ जे
अहीं पण (आ पंचास्तिकायनी १०३ गाथामां) ए ज कहे छे के अर्थतः अर्थी थईने आ शास्त्रने जाणवुं, अने
विस्तारथी सुंदर विवेचन आ लेखना पहेला भागमां आवी गयुं छे.)