Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १२ः आत्मधर्मः १८०
आत्मामां मोक्षनी झलक लईने संतोए आ शास्त्रो रच्यां छे. आत्मार्थी जीवोने हितनो मार्ग दर्शाववा माटे आ
शास्त्रो रच्यां छे. घडीकमां अंतरमां ठरे त्यां आनंदमां तरबोळ थई जाय, ने जराक–बहार आवतां वृत्ति ऊठे त्यारे
शास्त्र लखाय..आवी रीते चैतन्यना आनंदमां झूलती दशामां संतोए आ शास्त्र रच्यां छे. अंतरना आनंदनी झलक
बतावीने जगतने पडकार कर्यो छे के अरे जीवो! थंभी जाव..बहारमां तमारो आनंद नथी, तमारो आनंद तमारा
अंतरमां छे. अहा! बाह्यवेगे दोडता जगतने पडकार करीने संतोए थंभावी दीधुं छे.
अने, आ वात झीलनार जीव केवो छे?–आत्मार्थी छे, आत्मार्थ खातर मरी पडवा तैयार छे, ‘काम एक
आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन रोग’ पोतानो आत्मार्थ साधवा सिवाय जेना अंतरमां बीजुं कोई शल्य (मानादिनुं)
नथी; दुनिया पोताने गणे के न गणे तेनी एने दरकार नथी, जगतमां बीजानो संबंध रहे के न रहे तेनी सामे पण
जोतो नथी, एकाकी थईने पण पोताना आत्माने ज साधवा मांगे छे; आवो आत्मार्थी जीव ज्ञानी संतोना चरणनी
अतिशय भक्तिपूर्वक आ वात झीले छे. जेने आवी आत्मार्थीता होय तेने आत्मा समजावनारा गुरुजनो प्रत्ये
अंतरमां केटलो प्रमोद, भक्ति, बहुमान, उल्लास अने अर्पणतानो भाव होय! आत्मा समजावनार प्रत्ये विनयथी
अर्पाई जाय. अहो नाथ! आपने माटे हुं शुं–शुं करुं? पामर उपर आपे अनंतो उपकार कर्यो...आपना उपकारनो
बदलो माराथी कोई रीते वळी शके तेम नथी.
जेम कोईने फूंफाडा मारतो भयंकर सर्प फेण ऊंची करीने डंख मारे, ने झेर चडवाथी आलसविलस थईने तो ते
जीव तरफडतो होय, त्यां गारुडी मंत्रवडे कोई सज्जन तेनुं झेर उतारी नांखे तो ते जीव तेना प्रत्ये केवो उपकार
बतावे? अहाः आपे मारुं जीवन बचाव्युं, दुःखमां तरफडतो मने आपे ऊगार्यो,–एम उपकार माने.
तेम बाह्यविषयोथी अने रागादि कषायोथी लाभ माननारा जीवने अनंतानुबंधी क्रोधवडे फूंफाडा मारतो
मिथ्यात्वरूपी मोटो फणीधर करडयो छे, ने ते जीव फदफदता पाणीनी जेम दुःखमां फदफदी रह्यो छे, संसारभ्रमणना
दुःखोमां सेकातो थको आलस–विलस थईने तरफडीया मारे छे; त्यां धर्मात्मासंतो ज्ञानरूपी गारुडी मंत्रवडे तेनुं
झेर ऊतारी नांखे छे, ने तेने दुःखथी छूटकारानो उपाय बतावे छे. ते उपाय पामीने ते जीवने संतो प्रत्ये केटलो
उपकार आवे?–अहा नाथ! आपे मने जीवन आप्युं...अनंत दुःखमां तरफडतो मने आपे ऊगार्यो...सर्पना
झेरथी बचावनारे तो एक वार मरणथी बचाव्यो, परंतु आपे तो हे भगवान! अनंत जन्म–मरणना दुःखोथी
मने बचाव्यो.
–पण आ प्रमाणे खरो उपकारनो भाव क्यारे जागे? के ज्यारे संतोए बतावेलो मार्ग पोताना आत्मामां
प्रगट करे त्यारे.
मोक्षना साधक वीतरागी संतोए मोक्षनो उपाय बताव्यो छे ते मोक्षार्थी जीवने ज परिणमे
तेवो छे. जे जीव विषय कषायनो ने मानादिनो अर्थी होय तेने अंतरमां मोक्षनो उपाय परिणमतो
नथी. जे जीव मोक्षार्थी छे तेने माटे ज संतोनो उपदेश छे. समयसारमां आचार्यदेव कहे छे के–
जीवराज एम ज जाणवो,
वळी श्रद्धवो पण ए रीते,
एनुं ज करवुं अनुचरण
पछी यत्नथी मोक्षार्थीए.
मोक्षार्थी जीवे शुं करवुं ते एमां बताव्युं छे. ए ज रीते कळश १८पमां पण मोक्षार्थी जीवने माटे कहे छे के–
“मोक्षार्थीओ आ सिद्धांतनुं सेवन करो के हुं तो शुद्धचैतन्यमय एक परम ज्योति ज सदाय छुं; अने आ जे
भिन्न लक्षणवाळा विविध प्रकारना रागादिभावो प्रगट थाय छे ते हुं नथी.”
–आ रीते शास्त्रोमां मोक्षार्थी जीवने माटे ज संतोनो उपदेश छे.
अहीं पण (आ पंचास्तिकायनी १०३ गाथामां) ए ज कहे छे के अर्थतः अर्थी थईने आ शास्त्रने जाणवुं, अने
तेमां कहेला पदार्थोमांथी ‘अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वरूप जीव ते हुं छुं’ एम निश्चय करवो. (आ निश्चय करवा बाबत
विस्तारथी सुंदर विवेचन आ लेखना पहेला भागमां आवी गयुं छे.)