स्वरूपनी (अविकारनी के विकारनी) मर्यादा छोडीने परमां जतो नथी, अने जीवनी स्वरूपमर्यादामां पर द्रव्यो आवता
नथी. हवे आ उपरांत, जीवना शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां विकारनो पण प्रवेश नथी, विकार तो बहिर्लक्षी उपाधिरूप भाव
छे, शुद्ध चैतन्यभाव साथे तेनी एकता थई शकती नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे निर्मळभाव प्रगटे ते तो
जीवना स्वरूपमां अभेद थई जाय छे, एटले तेने तो जीव कह्यो, पण विकार भावोने जीवना शुद्धस्वरूप साथे अभेदता
थती नथी तेथी शुद्धस्वरूपनी द्रष्टिथी तेओ जीव नथी पण अजीव छे. पर्याय अपेक्षाए जोतां विकार निश्चयथी (अशुद्ध
निश्चयथी) पोतानो ज छे, ते पोतनो ज अपराधभाव छे; अने शुद्ध–द्रव्य–स्वभावनी अपेक्षाए जोतां (एटले के शुद्ध
निश्चयनयथी) विकार जीवमां देखातो ज नथी, शुद्ध चैतन्यस्वरूप ज जीव देखाय छे. आम बंने पडखानुं ज्ञान करावीने
आचार्यदेव कहे छे के तारा शुद्धस्वभावने मुख्यपणे लक्षमां लईने तेनी आराधना कर..अने अशुद्धताने गौण करीने
तेनो आश्रय छोड.
विकार अनुभवातो होवा छतां ते ज काळे साथे शुद्धचिदानंदस्वभावनुं भान पण वर्ततुं होवाथी, ते साधक विकारथी
विमुख थईने शुद्धस्वरूपमां वळतो जाय छे, एटले के स्वभाव अने विभाव वच्चे निरंतर भेदज्ञान वर्ततुं होवाथी ते
साधक रागादि परिणतिने शुद्धस्वरूपपणे कदी अंगीकार नथी करतो पण तेने परभावभूत उपाधि जाणीने छोडतो जाय
छे. राग परिणति छूटता कर्मबंधनी अनादिनी परंपरा तूटी जाय छे. रागपरिणतिथी कर्मनुं बंधन, तेना उदय वखते
फरीने रागपरिणति ने फरीने कर्मनुं बंधन–आवी परंपरा अनादिथी अतूट हती, पण हवे स्वभाव तरफ जेनी परिणति
वळी गई छे एवा जीवने रागादि परिणति छूटी जतां कर्मबंधनी परंपरा पण तूटी जाय छे, तेने नवा कर्मनुं संवारण
थतुं जाय छे ने जूनां कर्मो झरता जाय छे; ए रीते समस्त कर्मोथी विमुक्त थयो थको दुःखथी ते परिमुक्त थाय छे. दुःख
केवुं छे? के फदफदता पाणी जेवुं अशांत छे.
वेगे चडेला मृगलां उंधी दिशामां दोडे छे; एक दिशामां मृगलांने पकडवा माटे कोई पारधीए जाळ बिछावी होय,
अने ते देखीने कोई दयाळु महाजन ते मृगलांने बचाववाना हेतुथी तेने बीजी दिशामां वाळवा माटे हाकोटा करे,
त्यां भ्रांतिना वेगे चडेला ते मृगलां ते बचावनारने ज मारनार समजीने, तेनाथी डरीने ऊंधी दिशामां (जे
दिशामां जाळ पाथरेली छे ते दिशामां ज) झंपलावे छे ने अंते जाळमां फसाय छे. तेम मोहरूपी भ्रांतिना वेगे
चडेला, मृगलां जेवा अज्ञानी प्राणीओ पण अनादिथी ऊंधी दोट मूकी रह्या छे, ने बाह्य विषयोमां–रागमां सुख
मानीमानीने तेमां ज झंपलावी रह्या छे. ज्ञानी–महाराज करुणापूर्वक तेने विषयोथी पाछा वाळीने स्वभाव तरफ
आववानी हाकल करे छेः अरे प्राणीओ! बाह्य विषयो तरफनी वृत्तिमां सुख नथी. एमां तो आकुळतानो
खदबदाट छे, व्यवहारनी शुभ वृत्तिमां पण सुख नथी, तेमां पण आकुळतानो खदबदाट छे; माटे ए बाह्य
वृत्तिथी पाछा वळो..पाछा वळो..ने अंतरना चिदानंद स्वभावमां सुख छे, तेमां अंतर्मुख थाओ...अंतर्मुख थाओ
त्यां जे जीव जिज्ञासु छे, आत्मार्थी छे ते तो ज्ञानी संतोनी आवी हाकल सांभळीने थंभी जाय छे ने अंतरमां
विचार करीने तेनो विवेक करे छे...के अहा! आ वात परम सत्य छे, आ वात मारा हितनी छे, परंतु जे जीव
भ्रांतिना वेगे चडेलो छे, जेनी विचारशक्ति तीव्र मोहथी घेराई गई छे एवा जीवो तो, हितोपदेशकने पण
अहितरूप समजी, ‘आ तो अमारो व्यवहार पण छोडावे छे’–एम ऊल्टो भय पामीने उंधी दिशामां ज
(रागादिमां अने बाह्य विषयोमां) झंपलावे छे ने भवभ्रमणनी जाळमां फसाईने दुःखी थाय छे. पोताना
हितनो विचार करीने जे जीव स्वभाव तरफ वळे छे ने परभावनी