जिन प्रवचनमां कहेला द्रव्योने जाणे छे; ‘अर्थी थईने जाणे छे,’ एटले के आत्मानुं हित प्राप्त करवानी खरेखरी
दरकार करीने जाणे छेः ‘अर्थतः जाणे छे’ एटले के मात्र शब्दोनी धारणाथी नहि पण तेना भावभासनपूर्वक
जाणे छे. बधा पदार्थोने जाणीने तेमां रहेलां पोताना आत्माने जुदो तारवीने एम निश्चय करे छे के आ शुद्ध
चैतन्यस्वरूप स्ववस्तु छे ते ज हुं छुं. आवो निश्चय करीने पोताना आत्मा तरफ ढळे छे. पोताना आत्मामां पण
रागादि अशुद्ध पडखांने न आदरतां, शुद्धस्वरूपने आदरे छे. पर्यायमां विकार होवा छतां, ते ज वखते
विवेकज्योतिना बळे शुद्धस्वरूपमां ढळे छे ने रागादि परिणतिने छोडे छे; निजस्वभावने छोडतो नथी ने
परभावोने ग्रहतो नथी. रागना काळे भेदज्ञान वर्ते छे, पण कांई रागने लीधे ते भेदज्ञान नथी. रागनी साथे ज
वर्तता भेदज्ञानने लीधे साधक जीव ते रागमां अभेदता न करतां, शुद्धस्वभावमां अभेदता करतो जाय छे ने
रागने छोडतो जाय छे. रागरूपी चीकास छूटतां कर्मो पण छूटी जाय छे. जेम परमाणुमां स्पर्शनी चीकास वगेरे
जघन्य थई जतां ए परमाणु स्कंधमांथी छूटो पडी जाय छे, तेम स्वभाव तरफ झूकेला जीवने रागादि चीकास
छूटी जतां ते जीव कर्मबंधनथी छूटी जाय छे.
जोडाण तोडी नांखे छे. रागद्वेषपरिणतिवडे कर्मबंधनी परंपरा चालती हती पण ज्यां अंतर्मुख थईने रागद्वेषपरिणतिने
तोडी नांखी त्यां जूनां अने नवा कर्म वच्चेनी संधि तूटी गई एटले के कर्मनी परंपरा अटकी गई, ने ते जीव फदफदता
पाणी जेवा दुःखथी परिमुक्त थई गयो.
रहे छे पण जो पोतानी परिणतिने स्वभाव साथे जोडीने रागद्वेषने छोडे तो कर्मनी परंपरा तूटी जाय छे. जेम परमाणु
पोताना स्वरूपमां एकाकीपणे वर्ते छे तेम स्वरूपमां एकत्वपणे जोडायेलो जीव पण रागद्वेषरहित थयो थको
कर्मबंधरहित एकाकीपणे–मुक्तपणे परिणमे छे.
निजगुणसमूहमां छे तो तेमां मारी कांई कार्यसिद्धि नथी;– आम निजहृदयमां मानीने परम सुखपदनो अर्थी
भव्यसमूह शुद्ध आत्माने एकने भावे. जेम परमाणु जघन्यस्नेहरूप परिणमे त्यारे स्कंधरूप बंधनथी ते छूटो पडी
जाय छे, तेम आत्मा परमात्मभावनानी उग्रतावडे एकत्वस्वरूपमां परिणमतो थको कर्मबंधनथी छूटो पडी जाय
छे. आ रीते एक परमाणु अने सिद्ध परमात्मानी जेम जे जीव पोताना एकत्व स्वरूपमां वर्ते छे तेने नवुं बंधन
थतुं नथी अने जूनां बंधायेलां कर्मो पण छूटी जाय छे, एटले अशांत–फदफदता दुःखोथी ते मुक्त थई जाय छे.
जेम ठंडुं जळ तो शांत होय पण ते ऊकळतां तेमां फदफदीया पडीने ते अशांत थाय छे; तेम शांत जळथी भरेलुं
आ चैतन्य–सरोवर, तेमां रागद्वेषनो उकळाट थतां दुःखना फदफदीया उपडे छे, अशांति थाय छे;
चैतन्यस्वभावनी भावनावडे रागद्वेष उपशमी जतां ते फदफदता अशांत दुःखोथी जीव मुक्त थाय छे ने अतीन्द्रिय
शांतिने–आनंदने अनुभवे छे.
शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मस्वभावनो निर्णय करीने तेनी सन्मुख जे वर्ते छे ते जीव बंधनरहित थईने, दुःखथी
तेलमां सकरकंद सेकाय तेम घोर दुःखना खाडामां रागद्वेषमोहथी जीवो खदखदी