Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म वर्ष १प–१६ दीपावली–अभिनंदन अंक वीर सं. २४८४–८प
जेम बडवानीजी तीर्थमां आदिनाथ भगवाननी मोटी मूर्ति मूळ चूलगिरि पर्वतमांथी ज कोतरी काढी
छे, बहारथी नथी आवी; तेम चैतन्यस्वरूप आत्म चूलगिरि जेवो कारणपरमात्मा छे, तेना स्वभावमांथी
कोतरीने सिद्धपद प्रगटे छे, सिद्धपद बहारथी नथी आवतुं. सनतकुमार अने मघवा ए बे चक्रवर्तीओ छ–छ
खंडना राजने क्षणमात्रमां छोडीने मुनि थया ने आत्माने ध्यावीने अहींथी सिद्धपद पाम्या; ए ज रीते दस
कामदेव अने करोडो मुनिवरो पण अहींथी सिद्धपद पाम्या; ते बधाय अंदरमां कारण हतुं तेने ध्यावीने ज
कार्यपरमात्मा (सिद्ध) थया छे. पोताना स्वभावनुं सेवन करीने आ जीव पण एवुं सिद्धपद पामी शके छे.
स्वभावमां अंतर्मुख थवाथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटे छे, ते सिद्धिनो मार्ग छे. आवा मार्गथी अनंता
जीवो सिद्धपुरीमां पहोंच्या छे.
(यात्रामहोत्सव दरमियान, सिद्धवरकूट धाममां घणा सुंदर वातावरण वच्चे चालता प्रवचनमां गुरुदेव सिद्धपद
प्रत्येनी भावभीनी धून व्यक्त करी रह्या छे, ने श्रोताओ एकतान थईने आनंदपूर्वक झीली रह्या छेः अहा! जाणे
सिद्धभक्तिनो शांतरस वही रह्यो छे..)
सिद्धपदना साधक संतो कहे छे के, सर्वे सिद्धभगवंतोने मारा आत्मामां स्थापीने, तेमनी पंक्तिमां बेसीने, हुं
तेमने वंदन करुं छुं, तेमनो आदर करुं छुं. आ रीते जेणे सिद्धपदनो आदर कर्यो तेणे संयोगनी अने विकारनी बुद्धि
छोडीने उत्कृष्ट चैतन्यस्वभावमां आरोहण कर्युं. परिपूर्ण–ज्ञान–दर्शन–आनंद ने वीर्यस्वरूप परमसिद्धपद ज मारे
सत्कारवा जेवुं छे एम निर्णय करीने पोताना आत्मामां अनंत सिद्धभगवंतोने जेणे पधराव्या ते साधक जीव अल्प
काळमां सिद्धोनी वस्तीमां भळी जशे.
अंतरमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप साधकभाव प्रगट करीने सिद्धपदनो यात्रिक कहे छे के अहो
सिद्धभगवंतो! हुं मारा अंतरना आंगणे आपने पधरावुं छुं. ‘तारुं आंगणुं केवडुं?’ तो कहे छे के के सिद्धभगवान
समाय तेवडुं. पूर्णानंदने पामेला सिद्धपरमात्माने पोताना आंगणे पधरावतां धर्मी जीव पोतानी जवाबदारी सहित कहे
छे के हे सिद्धभगवंतो! मारा आंगणे पधारो..
आवो आवो श्री सिद्धभगवान अम घेर आवो रे..
रूडा भक्तिवत्सल भगवंत नाथ! पधारो ने..
हुं कई विध पूजुं नाथ! कई विध वंदुं रे..
मारे आंगणे सिद्धभगवान जोई जोई हरखुं रे..
मारा आत्मामांथी हुं विकारने काढी नांखीने आपने ज स्थापुं छुं,–हे नाथ! पधारो मारा अंतरे! निर्मळ श्रद्धा–
ज्ञानरूप मारा अंतरना आंगणे हुं आपने बिराजमान करुं छुं. आ रीते साधक धर्मात्मा पोताना आंगणे
सिद्धभगवानने पधरावीने पोते पण सिद्धपदने साधे छे.
सिद्धभगवंतोने अने सिद्धपद साधक संतोने नमस्कार हो.