प्रभुने केवळज्ञान थयुं. केवळज्ञान पछी त्रीस वर्ष सुधी सहजपणे इच्छा विना विहार थयो ने दिव्य उपदेश नीकळ्यो..
त्यारबाद आ पावानगरीमां पधार्या, ने अंतिमदेशना बाद योगनिरोध करीने अहींथी भगवान मोक्ष पाम्या; ते
मोक्षस्थाननी बराबर उपर सिद्ध भगवानपणे अत्यारे तेओ बिराजे छे.
साधी लीधुं. पछी जे वाणी नीकळी तेमां पण एवा हितनो ज उपदेश नीकळ्यो के अहो आत्मा! तारो आत्मा पण एक
क्षणमां परिपूर्ण ज्ञान–आनंदथी भरेलो छे; अमे जे अनंत ज्ञान–दर्शन–सुख ने वीर्य पाम्या ते आत्मानी अनंत
शक्तिमांथी ज पाम्या छीए. अमारा ने तारा आत्माना अंर्तस्वभावमां फेर नथी. आत्मानी क्षणिक अवस्थामां जे
शुभ–अशुभ लागणी छे ते विकृत छे, ते हितनुं कारण नथी; ते शुभ–अशुभनो अभाव करीने अमे अमारुं पूर्ण हित
साध्युं छे, माटे पहेलां एम नक्की कर के हुं जे हित प्राप्त करवा मांगुं छुं ते मारा आत्मानी शक्तिमांथी ज आवशे,
क्यांय बहारथी नहि आवे. आम स्वभाव–सन्मुख थवानो जे परमहितोपदेश सर्वज्ञ भगवाने आप्यो, तेनाथी ज
भगवाननी महत्ता छे.
वंदन करुं छुं–आवा गुणो वडे आपनी स्तुति करुं छुं.
प्रभो! एवुं तो मायावी–इद्रजाळीआ पण देखाडी शके. हे नाथ! अमे तो आपना गुणोने ओळखीने तेना वडे ज
आपनी स्तुति करीए छीए.
मायाविष्वपि द्दश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान्।।
सर्वज्ञता अने वीतरागतानो परीक्षा वडे निर्णय करीने तेनाथी ज आपनी महत्ता मानीए छीए. –
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।
भगवानने शुं कह्युं तेनी परीक्षा करीने भगवाननी स्तुति करे छे, एकला पुण्यनो ठाठ होय तेनी ज्ञानीने महत्ता नथी.
अरे! ज्ञानी धर्मात्मा तो एम विचारे छे के इन्द्रपद के चक्रवर्त्ती पद मळे ते पण पुण्यनुं फळ छे,–रागनुं फळ छे, ने ते
वैभवना भोगवटामां तो पापवृत्ति छे; तेमां क्यांय चैतन्यनुं सुख नथी. इन्द्रनो वैभव के चक्रवर्तीनो वैभव पूर्वना
पुण्यथी मळ्यो त्यां धर्मीने तेनो आदर नथी– तेनी रुचि नथी. चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो ज आदर छे, तेनी ज
मीठास छे. आत्माना आवा आनंदस्वभावनी सन्मुख थवानो उपदेश भगवाने कर्यो. अत्यारे तो भगवान