Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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महावीर प्रभुना मोक्षधाममां
गुरुदेवनुं प्रवचन
पावापुरी–जलमंदिर तीर्थधामनी यात्रा बाद पावापुरीमां गुरुदेवनुं भक्तिभर्युं प्रवचनः फागण सुद २ रविवार
जुओ, आ पावापुरी धाममां महावीर भगवान निर्वाण पदने पाम्या छे. देहथी पार ज्ञानानंद तत्त्वनुं भान तो
पहेलेथी हतुं, ने एवा भान सहित अहीं अवतर्या हता. त्यारबाद चारित्रदशा प्रगट करी, ने वैशाख सुद दसमीए
प्रभुने केवळज्ञान थयुं. केवळज्ञान पछी त्रीस वर्ष सुधी सहजपणे इच्छा विना विहार थयो ने दिव्य उपदेश नीकळ्‌यो..
त्यारबाद आ पावानगरीमां पधार्या, ने अंतिमदेशना बाद योगनिरोध करीने अहींथी भगवान मोक्ष पाम्या; ते
मोक्षस्थाननी बराबर उपर सिद्ध भगवानपणे अत्यारे तेओ बिराजे छे.
भगवान सर्वज्ञ हता, वीतराग हता ने हितोपदेशी हता; भगवाने हितोपदेशमां शुं कह्युं? जेनाथी आत्मानुं
परमहित थाय–तेवो उपदेश भगवाने कर्यो. भगवान पोते तो सर्वज्ञ–वीतराग थया ने पोताना आत्मानुं परम हित
साधी लीधुं. पछी जे वाणी नीकळी तेमां पण एवा हितनो ज उपदेश नीकळ्‌यो के अहो आत्मा! तारो आत्मा पण एक
क्षणमां परिपूर्ण ज्ञान–आनंदथी भरेलो छे; अमे जे अनंत ज्ञान–दर्शन–सुख ने वीर्य पाम्या ते आत्मानी अनंत
शक्तिमांथी ज पाम्या छीए. अमारा ने तारा आत्माना अंर्तस्वभावमां फेर नथी. आत्मानी क्षणिक अवस्थामां जे
शुभ–अशुभ लागणी छे ते विकृत छे, ते हितनुं कारण नथी; ते शुभ–अशुभनो अभाव करीने अमे अमारुं पूर्ण हित
साध्युं छे, माटे पहेलां एम नक्की कर के हुं जे हित प्राप्त करवा मांगुं छुं ते मारा आत्मानी शक्तिमांथी ज आवशे,
क्यांय बहारथी नहि आवे. आम स्वभाव–सन्मुख थवानो जे परमहितोपदेश सर्वज्ञ भगवाने आप्यो, तेनाथी ज
भगवाननी महत्ता छे.
आद्य स्तुतिकार स्वामी समन्तभद्र कहे छे के हे भगवान! आप मोक्षमार्गना नेता छो–हितमार्गना प्रणेता छो;
कर्मरूपी पर्वतने भेदी नांखनार छो, ने विश्वना समस्त तत्त्वोना प्रत्यक्षज्ञाता छो. आवा गुणोनी प्राप्ति माटे आपने
वंदन करुं छुं–आवा गुणो वडे आपनी स्तुति करुं छुं.
–त्यारे जाणे के भगवान तेने पूछे छेः हे भद्र स्तुतिमां आ समवसरण, आ देवोनुं आगमन, आकाशमां
गमन, आ चामर–छत्र वगेरे दिव्यवैभव तेनुं तो तें स्तवन न कर्युं!!
त्यारे समन्तभद्रस्वामी, भगवानने जवाब आपतां कहे छे के हे नाथ! शुं आ देवोनुं आववुं, आकाशमां
चालवुं ने चामरादि वैभव,–तेने लीधे आप अमारा मनने पूज्य छो? शुं तेने लीधे आपनी महानता छे? ?–ना, ना;
प्रभो! एवुं तो मायावी–इद्रजाळीआ पण देखाडी शके. हे नाथ! अमे तो आपना गुणोने ओळखीने तेना वडे ज
आपनी स्तुति करीए छीए.
देवागम–नभोयान–चामरादिविभूतयः।
मायाविष्वपि द्दश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान्।।
हे नाथ! आ समवसरणनो वैभव, आ देवोनुं आगमन, आ आकाशमां विहार एना वडे! अमे आपनी
महत्ता नथी मानता;–एवुं तो मायावी पण बतावी शके छे. हे नाथ! अमे तो आपना परम हितोपदेश वडे आपनी
सर्वज्ञता अने वीतरागतानो परीक्षा वडे निर्णय करीने तेनाथी ज आपनी महत्ता मानीए छीए. –
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।
जुओ, आ भगवाननी स्तुति! जेम नदीना प्रवाहमां तरंग ऊठे तेम ज्ञानीना हृदयमां सम्यग्ज्ञाननो प्रवाह
वहे छे. तेमां आ भक्तिरूपी तरंगो ऊठया छे. ज्ञानीनी स्तुति पण जुदी जातनी होय छे. भगवानने ओळखीने अने
भगवानने शुं कह्युं तेनी परीक्षा करीने भगवाननी स्तुति करे छे, एकला पुण्यनो ठाठ होय तेनी ज्ञानीने महत्ता नथी.
अरे! ज्ञानी धर्मात्मा तो एम विचारे छे के इन्द्रपद के चक्रवर्त्ती पद मळे ते पण पुण्यनुं फळ छे,–रागनुं फळ छे, ने ते
वैभवना भोगवटामां तो पापवृत्ति छे; तेमां क्यांय चैतन्यनुं सुख नथी. इन्द्रनो वैभव के चक्रवर्तीनो वैभव पूर्वना
पुण्यथी मळ्‌यो त्यां धर्मीने तेनो आदर नथी– तेनी रुचि नथी. चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो ज आदर छे, तेनी ज
मीठास छे. आत्माना आवा आनंदस्वभावनी सन्मुख थवानो उपदेश भगवाने कर्यो. अत्यारे तो भगवान