Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म वर्ष १प–१६ दीपावली–अभिनंदन अंक वीर सं. २४८४–८प
एक वार हरख तो लाव!
हे जीव! एक वार हरख तो लाव..के ‘अहो! मारो आत्मा आवो!’ ..
.. केवो?–के सिद्धभगवान जेवो. सिद्धभगवान जेवी परिपूर्ण
ज्ञान–आनंदनी ताकात मारा आत्मामां भरी ज छे, मारा आत्मानी
ताकात हणाई गई नथी. “अरेरे! हुं दबाई गयो, विकारी थई
गयो, हवे मारुं शुं थशे!’–एम डर नहि, मुंझा नहि, हताश न था.
एक वार स्वभावनो हरख लाव..स्वभावनो उत्साह कर..तेनो
महिमा लावीने तारा पुरुषार्थने ऊछाळ.. तो तने तारा अपूर्व आह्लादनो
अनुभव थशे. अने तुं सिद्धपदने पामीश.
वाणी रहित थई गया छे ने सिद्धपदमां बिराजे छे, त्यां क्षणेक्षणे आनंदनी नवी नवी पर्यायनो अनुभव करे छे.
चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदने अनुभवनारा ज्ञानी संतोने, इन्द्रिय विषयोमां वळेला जीवो प्रत्ये दया आवे छे.
चैतन्य स्वभावना अनुभव विना बीजुं कोई मोक्षनुं साधन थतुं नथी. वच्चे पूजा–भक्तिनी शुभ वृत्ति हो भले, पण ते
कांई मोक्षनुं साधन थती नथी. शुभाशुभवृत्ति ते स्वभावना खजानामांथी नथी आवती; स्वभावमां तो ज्ञान–आनंदनो
खजानो भर्यो छे. आवा आनंदस्वभावनुं जेने भान थयुं छे तेने चक्रवर्ती उपर के इन्द्र उपर पण दया आवे छे. पोते एवा
पदने इच्छता तो नथी पण एवा पदमां रहेला रागी जीवो उपर तेने दया आवे छे. चक्रवर्तीपद, इन्द्रपद वगेरे मोटी पदवी तो
सम्यग्दर्शननी भूमिकामां ज बंधाय छे, पण धर्मात्माने ते पदनी प्रीति नथी, चैतन्यनी प्रीति आडे जगतना कोई वैभवनी
तेने प्रीति नथी. आवा सम्यग्ज्ञान वगर जीवे रागनी रुचिथी अनंतवार मुनिव्रत पाळ्‌यां पण तेनुं जराय हित न थयुं.
“मुनिव्रतधार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिन सुख लेश न पायो.”
भगवान ज्यारे अहींथी मोक्ष पधार्या त्यारे उपरथी इद्रो अहीं मोक्ष कल्याणक उजववा आव्या हता. ते ज इन्द्र
अत्यारे बिराजे छे, ने ते ज आ भूमि छे. भगवान अहींथी मोक्ष पधार्या, गौतमस्वामी अहीं केवळज्ञान पाम्या; ने
अहींथी १३ माईल दूर गुणावामां मोक्ष पाम्या. आवा केवळज्ञान अने मोक्षपदनी जेने प्रीति छे ते वारंवार तेने याद करे
छे. ने ए रीते पोताना अंतरनी चैतन्य ऋद्धिने याद करीने तेनी भावना भावे छे, सम्यग्द्रष्टि केवा होय छे? तो कहे छे के–
रिद्धि सिद्धि वृद्धि दीसे घटमें प्रगट सदा,
अंतरकी लक्ष्मीसों अजाची लक्षपति है;
दास भगवंत के उदास रहे जगतसों,
सुखीया सदैव ऐसे जीव समकिती है.
समकिती धर्मात्मा जगतथी उदास छे, अंतरनी चैतन्य रिद्धिनुं तेने भान थयुं छे, ने क्षणे क्षणे पर्यायमां ज्ञान–
आनंदनी ऋद्धि वृद्धि थती जाय छे, जगत पासेथी सुखनी तेने आशा नथी, एटले ते जगतथी उदास छे अने भगवानना
दास छे; तेने भान छे के अमारुं सुख अमारा स्वभावमां छे. आ रीते अंतरनी लक्ष्मीथी समकिती जीवो सदा सुखीया छे.
सीताजीनी परीक्षा बाद रामचंद्रजी ज्यारे तेने राजमां पाछा आववानुं कहे छे, त्यारे सीताजी वैराग्यथी कहे छे के
अरे! आ संसारनुं स्वरूप अमे देखी लीधुं, आ पटराणी पद पण अमारे न जोईए. अमे तो हवे अर्जिका थईने चैतन्यना
आनंदनुं साधन करशुं. जुओ, समकितीने पहेलेथी आत्माना आनंदनुं भान छे ने राजपदने तूच्छ जाण्युं छे. सीताजी कहे
छे के अमे तो हवे अमारा चैतन्यनी निर्मळ परिणतिने पटराणी पदे स्थापशुं, आ बहारनां पटराणीपद हवे अमारे नथी
जोतां. तेमां क्यांय स्वप्नेय सुख नथी. ज्ञानीओने जगतना कोई पदार्थमां सुख भासतुं नथी; इन्द्रपदमां के चक्रवर्तीपदमां के
पद्मिनी स्त्रीमां क्यांय इन्द्रपदमां के चक्रवर्तीपदमां ज सुख छे. अहा, चैतन्यना अनंत सुखमय एवुं मोक्षधाम भगवान
अहींथी पाम्या, एनी ज सौए भावना करवा जेवी छे.
पूर्व प्रयोगादि कारणना योगथी,
ऊर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो..
सादि–अनंत अनंत समाधिसुखमां,
अनंत दर्शन, ज्ञानअनंत सहित जो.
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?