.. केवो?–के सिद्धभगवान जेवो. सिद्धभगवान जेवी परिपूर्ण
ज्ञान–आनंदनी ताकात मारा आत्मामां भरी ज छे, मारा आत्मानी
ताकात हणाई गई नथी. “अरेरे! हुं दबाई गयो, विकारी थई
गयो, हवे मारुं शुं थशे!’–एम डर नहि, मुंझा नहि, हताश न था.
एक वार स्वभावनो हरख लाव..स्वभावनो उत्साह कर..तेनो
महिमा लावीने तारा पुरुषार्थने ऊछाळ.. तो तने तारा अपूर्व आह्लादनो
अनुभव थशे. अने तुं सिद्धपदने पामीश.
चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदने अनुभवनारा ज्ञानी संतोने, इन्द्रिय विषयोमां वळेला जीवो प्रत्ये दया आवे छे.
कांई मोक्षनुं साधन थती नथी. शुभाशुभवृत्ति ते स्वभावना खजानामांथी नथी आवती; स्वभावमां तो ज्ञान–आनंदनो
खजानो भर्यो छे. आवा आनंदस्वभावनुं जेने भान थयुं छे तेने चक्रवर्ती उपर के इन्द्र उपर पण दया आवे छे. पोते एवा
पदने इच्छता तो नथी पण एवा पदमां रहेला रागी जीवो उपर तेने दया आवे छे. चक्रवर्तीपद, इन्द्रपद वगेरे मोटी पदवी तो
सम्यग्दर्शननी भूमिकामां ज बंधाय छे, पण धर्मात्माने ते पदनी प्रीति नथी, चैतन्यनी प्रीति आडे जगतना कोई वैभवनी
तेने प्रीति नथी. आवा सम्यग्ज्ञान वगर जीवे रागनी रुचिथी अनंतवार मुनिव्रत पाळ्यां पण तेनुं जराय हित न थयुं.
अहींथी १३ माईल दूर गुणावामां मोक्ष पाम्या. आवा केवळज्ञान अने मोक्षपदनी जेने प्रीति छे ते वारंवार तेने याद करे
छे. ने ए रीते पोताना अंतरनी चैतन्य ऋद्धिने याद करीने तेनी भावना भावे छे, सम्यग्द्रष्टि केवा होय छे? तो कहे छे के–
अंतरकी लक्ष्मीसों अजाची लक्षपति है;
दास भगवंत के उदास रहे जगतसों,
सुखीया सदैव ऐसे जीव समकिती है.
दास छे; तेने भान छे के अमारुं सुख अमारा स्वभावमां छे. आ रीते अंतरनी लक्ष्मीथी समकिती जीवो सदा सुखीया छे.
आनंदनुं साधन करशुं. जुओ, समकितीने पहेलेथी आत्माना आनंदनुं भान छे ने राजपदने तूच्छ जाण्युं छे. सीताजी कहे
छे के अमे तो हवे अमारा चैतन्यनी निर्मळ परिणतिने पटराणी पदे स्थापशुं, आ बहारनां पटराणीपद हवे अमारे नथी
जोतां. तेमां क्यांय स्वप्नेय सुख नथी. ज्ञानीओने जगतना कोई पदार्थमां सुख भासतुं नथी; इन्द्रपदमां के चक्रवर्तीपदमां के
पद्मिनी स्त्रीमां क्यांय इन्द्रपदमां के चक्रवर्तीपदमां ज सुख छे. अहा, चैतन्यना अनंत सुखमय एवुं मोक्षधाम भगवान
अहींथी पाम्या, एनी ज सौए भावना करवा जेवी छे.