Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४८४ः पः
– परम शांति दातारी –
अध्यात्म भावना
भगवानश्री पूज्य पादस्वामी रचित ‘समाधिशतक’
उपर परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीना अध्यात्मभावना
–भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(वीर सं. २४८२ जेठ वद १ रविवार; समाधिशतक गा. २९)
ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणीने तेनी ज वारंवार भावना करवाथी आत्मा परम पदने पामे छे, माटे ते
भावना करवा जेवी छे–एम कह्युं. त्यां हवे कोई प्रश्न करे छे के प्रभो! आपे कही तेवी भावना करवी तो कठण–
कष्टदायक लागे छे, बाह्य पदार्थोनी भावना सुगम लागे छे; आ रीते आत्मानी भावना तो भयनुं स्थान लागे छे, ने
बहारना विषयोमां निर्भयता लागे छे; तो आत्मामां प्रवृत्ति कई रीते थाय!! तेने आचार्यदेव उत्तर आपे छे के अरे
जीव! ज्यां तुं कष्ट अने भय माने छे एवा तारा चैतन्यपद समान बीजुं कोई इष्ट अने निर्भय स्थान नथी, अने
बाह्य पदार्थोने तुं निर्भयतानुं कारण माने छे तेना जेवुं भयस्थान बीजुं कोई नथी.–
मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयासपदम्।
यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः।।२९।।
मूढ जीव विश्वस्त छे ज्यांं,
ते ज भयनुं स्थान छे;
भयभीत छे जे स्थानथी,
रे! अभयनुं ते स्थान छे.
अरे मूढ जीव! चैतन्यने चूकीने बहारमां शरीर, लक्ष्मी, कुटुंब वगेरेने अभयस्थान मानीने तुं विश्वास करी
रह्यो छे, ते तो भयस्थान छे, बहारमां तने कोई शरण नथी. अंतरमां चैतन्य स्वभाव ज परम शरण छे; तेने
भयस्थान मानीने तुं तेनाथी दूर भागे छे पण अरे मूढ! तारा आत्मा जेवुं अभयस्थान जगतमां कोई नथी.
अरे! तारुं चैतन्य तत्त्व भयनुं स्थान नथी, ते मुंझवणनुं स्थान नथी, दुःखनुं स्थान नथी; तारुं
ज्ञानीने ज्ञाननुं प्रमाणरूप परिणमन–सम्यग्ज्ञानपणुं–भेदज्ञान–तो निरंतर वर्ती ज रह्युं छे, तेमज द्रष्टि तो
निश्चयनयना विषयरूप शुद्धआत्मा उपर ज सदाय पडी छे, हवे तेने जे विकल्प ऊठे छे ते पहेलांना जेवो नथी, पहेलां
अज्ञानदशामां तो ते विकल्पसाथे ज एक्ता मानीने त्यां ज अटकी जतो; अने भेदज्ञानदशामां तो ते विकल्पने पोताना
स्वभावथी जुदो ज जाणे छे, एटले तेमां अटकवानुं बनतुं नथी, पण शुद्धस्वभाव तरफ ज जोर रहे छे. आवी
साधकजीवनी परिणति होय छे.