पण चीज शरण नथी, तने बीजुं कोई निर्भयतानुं स्थाननथी. अरे! आवो भगवान आत्मा अभय स्थान होवा छतां
मूढ आत्माओ तेनाथी डरे छे–तेनी रुचि करता नथी पण खेद करे छे;– परिणाममां चंचळता संदेह करे छे ते ज भय छे.
पण निःशंकपणे तेमां एकाग्र थतां नथी. बहारमां देह, कुटुंब, लक्ष्मी वगेरेमां सुख मानीने तेमां निःशंकपणे भय वगर
प्रवर्ते छे...पण तेमां क्यांय सुख नथी, ते कोई शरणनुं स्थान नथी. एक चैतन्यपद ज अभय छे...ते ज शरणनुं स्थान
छे...माटे निर्भयपणे तेमां प्रवर्तो...एम ‘स्वामी’ नो उपदेश छे.
विश्वास अज्ञानीने आवतो नथी एटले निःशंकपणे तेमां उल्लास करतो नथी. तेनाथी दूर भागे छे, ने विषयोनी समीप
उल्लासथी दोडे छे, तेमां सुखनो विश्वास करे छे; जेम मृगजळनी पाछळ मृग दोडे तेम ते विषयो प्रत्ये दोडे छे...बाह्य
विषयोने शरण मानीने तेनी पाछळ झांवा नांखी नांखीने दोडे छे ने आकुळताथी दुःखी थाय छे. ज्यां सुखनी सत्ता
भरी छे एवा पोताना आत्मानी सत्तानो तो विश्वास करतो नथी, तेनी आस्था करतो नथी, त्यां तो नास्तिक थई जाय
छे, ने बहारमां सुख न होवा छतां त्यां सुख मानीने ते तरफ दोडे छे. जेम जेने झेरी सर्प करडयो होय ते मनुष्य कडवा
लीमडाने पण प्रेमथी चावे छे, तेम जेने मिथ्यात्वरूपी काळा नागनुं झेर चडयुं ते जीव दुःखदायक इन्द्रिय–विषयोने पण
सुखदायक मानीमानीने ते तरफ दोडे छे. इन्द्रियविषयो तो एकांत भयनुं–दुःखनुं ज स्थान छे, ने आ अतीन्द्रिय
चिदानंदस्वरूप आत्मा ज अभयस्थान अने सुखनुं धाम छे. चैतन्यनी सन्मुखतामां आनंद रसनो अनुभव थाय छे,
माटे तुं तारा शुद्ध चैतन्यपदनो अनुभव कर, एम संतोनो उपदेश छे.
अवलंबन बतावो! त्यारे आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! व्यवहारना (शुभ रागना) अवलंबनमां तारुं कांई हित
नथी, तेमां एकलुं दुःख ज छे, ने चैतन्यतत्त्व आनंदनो सागर छे तेमां तारुं सुख छे; माटे शुद्धनयवडे तेना ज
अनुभवनो उद्यम कर; त्यांथी ज हितनी शरूआत थाय छे.
तिनहीको सेवत गिनत चेन.”
ते लखे आपकुं कष्ट दान.”
पोताने कष्टदायक समजे छे. आत्मज्ञानने तो कष्टदायक समजीने तेनाथी दूर भागे छे, ने रागादिने सुखदायक मानीने
तेना तरफ होंशथी दोडे छे. आ ते केवी मूढता छे!! अज्ञानी जीवोनी आवी प्रवृत्ति माटे करुणापूर्वक श्रीमद् राजचंद्रजी
कहे छे केः अरे जीव!
अनंत दुःख नाम सुख, प्रेम त्यां विचित्रता!
ऊघाड न्याय नेत्रने, नीहाळ रे! नीहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तुं.