Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १८०
चैतन्यतत्त्व अभयपदनुं स्थान छे...शांतिस्वरूप छे...आनंदनुं धाम छे. आवा आत्मतत्त्व सिवाय बहारमां तने कोई
पण चीज शरण नथी, तने बीजुं कोई निर्भयतानुं स्थाननथी. अरे! आवो भगवान आत्मा अभय स्थान होवा छतां
मूढ आत्माओ तेनाथी डरे छे–तेनी रुचि करता नथी पण खेद करे छे;– परिणाममां चंचळता संदेह करे छे ते ज भय छे.
पण निःशंकपणे तेमां एकाग्र थतां नथी. बहारमां देह, कुटुंब, लक्ष्मी वगेरेमां सुख मानीने तेमां निःशंकपणे भय वगर
प्रवर्ते छे...पण तेमां क्यांय सुख नथी, ते कोई शरणनुं स्थान नथी. एक चैतन्यपद ज अभय छे...ते ज शरणनुं स्थान
छे...माटे निर्भयपणे तेमां प्रवर्तो...एम ‘स्वामी’ नो उपदेश छे.
चैतन्यस्वभाव प्रत्ये होंश लावतो नथी ने बहारमां होंश लावीने प्रवर्ते छे, तेने चैतन्यनो डर लागे छे, भय
लागे छे. जेने भयनुं स्थान माने तेमां केम प्रवर्ते? अने जेने अभयस्थान माने तेने केम छोडे? चैतन्यस्वभावनो
विश्वास अज्ञानीने आवतो नथी एटले निःशंकपणे तेमां उल्लास करतो नथी. तेनाथी दूर भागे छे, ने विषयोनी समीप
उल्लासथी दोडे छे, तेमां सुखनो विश्वास करे छे; जेम मृगजळनी पाछळ मृग दोडे तेम ते विषयो प्रत्ये दोडे छे...बाह्य
विषयोने शरण मानीने तेनी पाछळ झांवा नांखी नांखीने दोडे छे ने आकुळताथी दुःखी थाय छे. ज्यां सुखनी सत्ता
भरी छे एवा पोताना आत्मानी सत्तानो तो विश्वास करतो नथी, तेनी आस्था करतो नथी, त्यां तो नास्तिक थई जाय
छे, ने बहारमां सुख न होवा छतां त्यां सुख मानीने ते तरफ दोडे छे. जेम जेने झेरी सर्प करडयो होय ते मनुष्य कडवा
लीमडाने पण प्रेमथी चावे छे, तेम जेने मिथ्यात्वरूपी काळा नागनुं झेर चडयुं ते जीव दुःखदायक इन्द्रिय–विषयोने पण
सुखदायक मानीमानीने ते तरफ दोडे छे. इन्द्रियविषयो तो एकांत भयनुं–दुःखनुं ज स्थान छे, ने आ अतीन्द्रिय
चिदानंदस्वरूप आत्मा ज अभयस्थान अने सुखनुं धाम छे. चैतन्यनी सन्मुखतामां आनंद रसनो अनुभव थाय छे,
माटे तुं तारा शुद्ध चैतन्यपदनो अनुभव कर, एम संतोनो उपदेश छे.
समयसारमां पण शुद्ध आत्माना अनुभवनो ज उपदेश आचार्यदेवे कर्यो छे. त्यां शिष्य प्रश्न पूछे छे के प्रभो!
पहेलेथी ज आप शुद्ध आत्माना अवलंबननो उपदेश आपो छो, परंतु तेमां तो कष्ट लागे छे, कांईक व्यवहारनुं
अवलंबन बतावो! त्यारे आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! व्यवहारना (शुभ रागना) अवलंबनमां तारुं कांई हित
नथी, तेमां एकलुं दुःख ज छे, ने चैतन्यतत्त्व आनंदनो सागर छे तेमां तारुं सुख छे; माटे शुद्धनयवडे तेना ज
अनुभवनो उद्यम कर; त्यांथी ज हितनी शरूआत थाय छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते आत्माना हितकर छे छतां अज्ञानी तेने अहितरूप–कष्टरूप माने छे, ने
विषयकषायो आत्माने अहितरूप छे छतां तेमां अज्ञानी हित मानीने प्रवर्ते छे.–छ ढाळामां कहे छे के–
“रागादि प्रगट ये दुःखदेन,
तिनहीको सेवत गिनत चेन.”
अने
“आतमहित–हेतु विराग ज्ञान,
ते लखे आपकुं कष्ट दान.”
जुओ, आ अज्ञानीनां लक्षण! रागादि विभावो दुःखरूप होवा छतां मूढताथी तेने सुखरूप मानीने तेनुं सेवन
करे छे; अने चैतन्यस्वभावमां अंतर्मुख थईने जे ज्ञान–वैराग्य करवा ते आत्माना हितनो हेतु होवा छतां मूढ जीव ते
पोताने कष्टदायक समजे छे. आत्मज्ञानने तो कष्टदायक समजीने तेनाथी दूर भागे छे, ने रागादिने सुखदायक मानीने
तेना तरफ होंशथी दोडे छे. आ ते केवी मूढता छे!! अज्ञानी जीवोनी आवी प्रवृत्ति माटे करुणापूर्वक श्रीमद् राजचंद्रजी
कहे छे केः अरे जीव!
अनंत सुख नाम दुःख, त्यां रही न मित्रता,
अनंत दुःख नाम सुख, प्रेम त्यां विचित्रता!
ऊघाड न्याय नेत्रने, नीहाळ रे! नीहाळ तुं,
निवृत्ति शीघ्रमेव धारी ते प्रवृत्ति बाळ तुं.
अहा जे अनंत सुखनुं धाम छे एवा चैतन्यस्वभावमां तो तने मित्रता न रही–तेमां उत्साह अने प्रेम न
आव्यो; ने अनंत दुःखनुं धाम एवा जे
(अनुसंधान पृष्ठ २१)