ः १४ः आत्मधर्मः १८१
बीजा एक हजार राजवीओए पण संयम दीक्षा अंगीकार करी. ते ज समये आत्मध्यानमां एकाग्र थतां
भगवानने मनःपर्यय ज्ञान प्रगटयुं.
मुनिदशामां नव वर्ष वीत्या बाद मागसर सुद अगीआरशे पोताना दीक्षावनमां ज ध्यानस्थ
भगवानने केवळज्ञान थयुं अने देवोए केवळज्ञान कल्याणकनो उत्सव कर्यो. भव्यजीवोने मोक्षमार्गनो
उपदेश करता थका भगवान नमिनाथ तीर्थंकर अनेक देशोमां विचर्या...ज्यारे एक महिनो आयुष्य बाकी
रह्युं त्यारे तेओ सम्मेदशिखर उपर आवीने बिराजमान थया.....अने त्यां एक हजार मुनिवरोनी साथे
प्रतिमायोग धारण करीने चैत्र वद चोदसनी रात्रे प्रभुजी मोक्ष पधार्या.–ते श्री नमिनाथ तीर्थंकर अमने
पण मोक्षलक्ष्मी प्रदान करो.
(–महापुराणना आधारे)
हवे पछी.....!
हवे पछी प्रसिद्ध थनारी चित्रकथामां
आदिनाथ प्रभुने जुगलीयानां भवमां
सम्यक्त्व–प्राप्तिना प्रसंगनुं भाववाही
आलेखन आवशे.
अजीवनो स्वामी अजीव होय
“ जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं स्व
थाय, ने हुं पण अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे
स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय. ए रीते अवशे–लाचारीथी पण मने
अजीवपणुं आवी पडे. मारुं तो एक ज्ञायकभाव ज स्व छे, ने तेनो ज हुं
स्वामी छुं; माटे मने अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, परद्रव्यने
नहि परिग्रहुं”–आ प्रमाणे जाणतो थको धर्मीजीव परद्रव्यने जरा पण
पोतानुं मानतो नथी, परथी अत्यंत भिन्न ज्ञायकस्वभावपणेज पोताने
अनुभवे छे. तेथी तेने निश्चय छे के–
छेदाव, वा भेदाव, को लई जाव, नष्ट बनो भले,
वा अन्य को रीत जाव, पण परिग्रह नथी मारो खरे.
आचार्यदेव कहे छे केः जो तुं अजीवने पोतानुं मानीने ते अजीवनो स्वामी
थवा जईश तो तुं अजीव थई जईश! एटले के जीवतत्त्व तारी श्रद्धामां नहि रहे.
माटे हे भाई! जो तुं तारी श्रद्धामां तारा जीवतत्त्वने जीवतुं राखवा मांगतो हो
तो तारा आत्माने ज्ञायकस्वभावी ज जाणीने तेनो ज स्वामी था, ने बीजानुं
स्वामीपणुं छोड.