कारतकः २४८पःः १७ः
परथी ने रागथी पराडमुख थईने, आत्मस्वभावनी ज आराधना कर. जे आवी आराधना करे छे ते ज
भगवानना दिव्य उपदेशने झीलीने भगवानना कदम–कदम पर चाले छे, भगवान जे मार्गे चाल्या ते मार्गे
भगवानना पगले पगले ते चाले छे. पण रागथी धर्म मानीने रागने जे आराधे छे ते भगवानना मार्गे
चालनारो नथी अरे जीव! तारे सर्वज्ञ भगवानना मार्गे चालवुं होय– प्रभुजीना पगले पगले चालवुं होय तो
रागनी भावना छोडीने; चिदानंदस्वभावनी ज भावना कर.....तेनी भावनामां एकाग्र थईने चैतन्यजिनप्रतिमा
था...आवो परमात्मानो मार्ग छे, जे आवा मार्गे चाले छे ते पोते परमात्मा थई जाय छे. ।। ३१।।
मारो आत्मा ज परमात्मस्वरूप छे तेथी मारो आत्मा ज मारे उपास्य छे–एम जाणनार धर्मी शुं करे छे
ते बतावे छे–
प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम्।
बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानंदनिर्वृतम्।। ३२।।
मारो आत्मा ज परमात्मस्वरूप छे तेथी ते ज मारे आराध्य छे–एम में जाण्युं छे; तेथी हवे हुं बाह्य
इन्द्रियविषयोथी मारा आत्माने च्युत करीने, मारामां स्थित ज्ञानस्वरूप अने परम आनंदथी परिपूर्ण एवा
मारा आत्माने मारा वडे ज पाम्यो छुं.
मारा ज्ञान–आनंदस्वरूपने हुं मारा वडे ज पाम्यो छुं, रागवडे नहि. रागना रस्ते चालवाथी ज्ञानआनंदमय
परमात्मपदनी प्राप्ति थती नथी. रागना पगले चालतां चालतां धर्म थवानुं जे माने छे ते जीव परमात्माना
पगलांने ओळखतो नथी, ते जीव परमात्माना पंथे–परमात्माना पगले नथी चालतो. जेणे परमात्मा थवुं होय तेणे
परमात्माना पगले चालवुं जोईए. बाह्य विषयोथी च्युत थईने आत्माना परम ज्ञानानंद स्वरूपमां स्थिर थवुं ते
ज परमात्मानो पंथ छे. हे जीव! तारे परमात्मा थवुं होय तो तुं आ रीते परमात्मस्वरूपनी भावना करीने
परमात्माना पगले पगले चाल....परमात्मतत्त्वनी अभेद भावना भावीने चैतन्य जिनप्रतिमा था.
धर्मी कहे छे के मारा परमात्मस्वरूपने ज परम आराध्य जाणीने हुं मारामां ज स्थिर थयो छुं; ने ए रीते हुं
जिनेन्द्र भगवानना पुनित पगले चाल्यो जाउं छुं. रागथी जे धर्म माने छे ते जीव विषयोथी च्यूत थतो नथी ते
ज्ञानानंदस्वरूपमां ठरतो नथी, एटले ते भगवानना पगले आवतो नथी. मारा आत्मानी ज उपासना करीने हुं
उपासक–साधक थयो छुं. आवी साधना ते ज परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय छे. देहादिथी भिन्न मारो आत्मा ज
परमात्म शक्तिथी परिपूर्ण छे, एम जाणीने धर्मी पोताना आत्माने ज उपास्य जाणीने तेमां एकाग्रतावडे तेनी
आराधना करे छे, ने ते उपायथी परमात्मपद पामीने अनंतकाळ सुधी शांत परमानंद रसमां ज मग्न रहे छे.।।३२।।
ज्ञानी अंतमुर्ख थईने देहादिथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वरूपनी ज आराधना करे छे, एम ३२मी गाथामां
कह्युं; हवे, देहादिथी भिन्न चैतन्यस्वरूप मारो आत्मा ज मारे आराध्य छे एम जे नथी जाणतो ते जीव घोर तप
करे तोपण मुक्ति नथी पामतो, एम कहे छे.–
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्।
लभते स न निर्वाणं पप्त्वापि परमं तपः।। ३२।।
ए रीते पोताना उपयोगने बाह्य विषयोथी च्युत करीने एटले के अंतर्मुख वाळीने, देहादिथी भिन्न
अविनाशी आत्माने जे जीव नथी जाणतो, ते महान तप करे तोपण निर्वाणने नथी पामतो
निर्वाणनो मार्ग तो अंतरमां आत्माना आधारे छे. आत्मानी शक्तिने जे जाणतो नथी ते पराधीनपणे
संसारमां रखडे छे. आत्मा दैवी चैतन्य शक्तिवाळो देव छे, पोते ज पोतानो आराध्य देव छे.
तमे कई शक्तिना उपासक? एम पूछतां धर्मी कहे छे के हुं मारी चैतन्य शक्तिनो ज उपासक छुं. पोतानी
चैतन्यशक्तिने जाणीने तेनी उपासना वगर बीजा कोई उपाये मुक्ति थती नथी.
(वीर सं. २४८२ः जेठ वद ४)
जेने देहथी भिन्न चैतन्य तत्त्वनुं भान नथी, चैतन्यना आह्लादनुं वेदन नथी, ने देहने ज आत्मा
मानीने घोर तपश्चरण करे छे ते जीव घोर तप करवा