Atmadharma magazine - Ank 181
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः १८१ आत्मधर्म
* क्रमबद्ध पर्यायनी प्रतीतमां मोक्षमार्गनो सम्यक् पुरुषार्थ *
(१२) प्रश्नः– हवे बधा पदार्थोनी त्रणे काळनी पर्यायो क्रमबद्ध छे, एम माननारने केवळज्ञाननी प्रतीत छे के
नहि?
उत्तर– हा, यथार्थपणे क्रमबद्धपर्याय माननारने केवळज्ञाननी प्रतीत पण जरूर छे.
(१३) प्रश्नः– केवळज्ञाननी प्रतीत साथे पोताना ज्ञान–स्वभावनी पण प्रतीत छे के नहि?
उत्तरः– हा, केवळज्ञाननी प्रतीत साथे पोताना ज्ञानस्वभावनी प्रतीत पण जरूर छे. (प्रवचनसार
गाथा ८० प्रमाणे)
(१४) प्रश्नः– ज्ञानस्वभावनी प्रतीतमां सम्यग्दर्शनरूप मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ आवे छे के नहि?
उत्तरः– हा, ज्ञानस्वभावनी प्रतीतमां सम्यग्दर्शननो पुरुषार्थ आवी जाय छे, ने सम्यग्दर्शन ते
मोक्षमार्गनुं मूळ छे.
आ रीते क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीतमां मोक्षमार्गनो सम्यक् पुरुषार्थ आवी ज जाय छे.
(१प) प्रश्नः– क्रमबद्धपर्याय मानतां पुरुषार्थ ऊडी जाय छे–ए वात साची छे?
उत्तरः– ना, ए वात साची नथी. क्रमबद्धपर्यायने मानवाथी तो ज्ञातापणानो सम्यक्पुरुषार्थ थाय छे. हा, एटलुं
खरुं के क्रमबद्धपर्याय मानतां परमां कर्ताबुद्धिरूप मिथ्यात्वनो ऊंधो पुरुषार्थ ऊडी जाय छे.
* क्रमबद्धपर्याय न माने तो मिथ्याद्रष्टिपणुं *
(१६) प्रश्नः– क्रमबद्धपर्याय न माने तो?
उत्तरः– क्रमबद्धपर्यायने न माने तो खरेखर ते आत्माना ज्ञानस्वभावने ज नथी मानतो.
क्रमबद्धपर्याय मान्या वगर त्रण काळनुं संपूर्णज्ञान सिद्ध न थाय एटले के केवळज्ञान ज सिद्ध न थाय;
केवळज्ञाननी प्रतीत वगर ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा न थाय; ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा वगर सम्यग्दर्शन न
थाय; ने सम्यग्दर्शन वगर मोक्षमार्गनो सम्यक् पुरुषार्थ न होय.
आ रीते क्रमबद्धपर्यायने मान्या वगर मोक्षमार्गनो सम्यक् पुरुषार्थ थतो नथी एटले के
मिथ्याद्रष्टिपणुं ज रहे छे.
माटे
मोक्षमार्गनो सम्यक् प्रयत्न करवाना अभिलाषी जीवो प्रथम ज केवळज्ञान अने क्रमबद्ध पर्यायनुं
स्वरूप बराबर समजीने तेनी निःसंदेह प्रतीत करो!
*क्रमबद्ध परिणाम अने कर्तापणुं *
प्रश्नः– पर्यायो क्रमबद्ध छे, आत्मानी पर्यायो पण क्रमबद्ध जे थवा योग्य छे ते ज थाय छे,– माटे आत्मा
तेनो अकर्ता छे–ए वात बराबर छे?
उत्तरः– ना; आत्मा पोतानी पर्यायनो अकर्ता छे–ए वात बराबर नथी. पोतानी जे जे
क्रमबद्धपर्यायपणे आत्मा परिणमे छे तेनो कर्ता आत्मा पोते ज छे, परंतु अहीं एटलुं विशेष समजवा योग्य छे
के ‘आत्मानो ज्ञायक स्वभाव छे’–एवी जेनी द्रष्टि थई छे के क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय थयो छे ते जीव
मिथ्यात्वादि भावोरूपे परिणमतो ज नथी तेथी मिथ्यात्वादि भावोनो तो ते अकर्ता ज छे; तेमज जे
अल्परागादि विकार थाय छे तेमां पण ते एकत्वपणे नथी परिणमतो ते अपेक्षाए ते रागादिनो पण अकर्ता छे.
परंतु पोताना सम्यग्दर्शन–ज्ञानादि निर्मळ क्रमबद्ध परिणामना तो ते कर्ता छे. “क्रमबद्ध परिणाम’ नो एवो
अर्थ नथी के आत्मा पोते कर्ता थया विना ज ते परिणम थई जाय छे! ज्ञानी पोताना निर्मळ ज्ञानभावने करतो
थको तेनो पोते कर्ता थाय छे, ने अज्ञानी पोताना अज्ञान भावने करतो थको तेनो कर्ता थाय छे. आ रीते दरेक
द्रव्य पोते ज पोतपोताना क्रमबद्ध परिणामनो कर्ता छे. –चर्चामाथी; श्रावण २४८१)