Atmadharma magazine - Ank 181
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४८पः २१ः
ज्ञानी अने अज्ञानीना कार्यमां मोटुं अंतर
एकना कार्यनुं फळ मोक्ष...
बीजाना कार्यनुं फळ संसार
(सुरेन्द्रनगरना प्रवचनमांथी, वीर सं. २४८४ वैशाख सुद बीज)
पहेलां अंतरथी हकार लावीने स्वरूपनो
निःशंक निर्णय करे तो पुरुषार्थनो वेग स्वभाव
तरफ वळे; स्वरूपना निःसंदेह निर्णय वगर
वीर्यना उत्साहनो वेग स्वतरफ वळे नहि;
भगवान महावीरनो बोध तो अंतरना
सूक्ष्मस्वभावनो छे; ते सूक्ष्मस्वभाव
समजवानी अभिलाषा थवी जोईए. भगवान
महावीरना बोधने पात्र कोण? के सदैव
सूक्ष्मबोधनो अभिलाषी होय ते.
जेने जन्ममरणना अंत लाववा होय ने स्वतंत्र सुख प्रगट करवुं होय एवा जीवनी वात छे. चार
गतिमां जेने कोई पण अवतार सारो लागतो होय–तेमां सुख लागतुं होय ते तेनाथी छूटवानो उपाय केम करे?
चारे गतिमां जीव पोताना अज्ञानथी ने मोहथी परिभ्रमण करे छे ने दुःख वेदे छे, पण ते दुःख तेने खरेखर दुःख
लागतुं नथी. अरे, चारे गतिनो भाव दुःखरूप छे. चैतन्यस्वरूप आत्मामां ज सुख छे, पण तेनी वात
सत्समागमे कदी प्रीतिथी जीवे सांभळी पण नथी. चैतन्यस्वरूपने चूकीने रागद्वेषादिने ज पोतानुं कार्य मानतो
थको अज्ञानी जीव संसारमां रखडी रह्यो छे.
जीवो पोताना स्वभावने करो के विकारने करो, पण परने तो करवानी ताकात कोई जीवमां नथी.
अज्ञानी जीव अज्ञानपणे शुं करे? के “हुं रागादिनो कर्ता, हुं परनो कर्ता” एवी मिथ्याबुद्धिथी अज्ञानपणे
रागादिने करे छे, परंतु परचीजने तो ते करी शकतो नथी. ज्ञानी पोताना आत्माने ज्ञानानंदस्वरूपे अनुभवतो
थको ज्ञाता ज रहे छे, ते विकारनो कर्ता थतो नथी. आ सिवाय ज्ञानी के अज्ञानी कोई जीव परचीजमां तो कांई
करतो नथी, दरेक जीवनुं कार्यक्षेत्र पोतामां ज छे, बहारमां कोईनुं कार्यक्षेत्र नथी. ज्ञानी पोताना ज्ञानभावमां
रहेतो थको ज्ञानभावने ज करे छे, विकारनी पकडमां ते पकडाई जतो नथी, पोताना ज्ञानने विकारथी छूटुं ज
राखे छे; ने अज्ञानी विकारनी जाळमां पकडाईने ते विकारने ज पोतानुं कर्तव्य मानीने रोकाय छे. विकारनी
क्रियामां अटकेलो जीव कर्मोथी बंधाय छे, माटे ते विकारी क्रियानो भगवाने निषेध कर्यो छे. अने विकार वगरनी
ज्ञानक्रिया ते मोक्षनुं कारण छे तेथी ते क्रियाने निषेधवामां आवती नथी. अज्ञानी जीव क्रोधादिने आत्मा साथे
एकमेक मानीने चैतन्यनो अनादर करे छे तेथी ते क्रोधादिमां निःशंकपणे पोतापणे वर्ते छे, “जेम ज्ञान ते हुं छुं
तेम कोधादि पण हुं छुं”–एम निःशंक पणे क्रोधादि साथे एकमेकपणे वर्ते छे, पण ज्ञान अने क्रोध वच्चे जराय
तफावत देखतो नथी, एवो जीव पोताना अज्ञानने लीधे रागादिमां प्रवर्ततो थको कर्मथी बंधाय छे. हुं तो ज्ञानी
छुं, क्रोधादि मारा