Atmadharma magazine - Ank 181
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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पं द र मी सा ल नुं प हे लु प्र व च न
* मंगल.........सुप्रभात *
पंदरमी सालना नूतनवर्षना सुप्रभाते मंगल प्रवचन करतां गुरुदेवे कह्युं
केः सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं........’ अर्थात्
सर्वज्ञभगवाने पोताना ज्ञानमां जीवने सदाय उपयोगलक्षणवाळो जोयो छे. जीव
तो त्रिकाळ उपयोगस्वरूप छे. त्रिकाळ उपयोगस्वरूपी आत्मा पोते ज मांगळिक
छे; अने तेनी श्रद्धा करवी, ज्ञान करवुं, लीनता करवी ने केवळज्ञान प्रगट करवुं ते
मंगल सुप्रभात छे.
जीवनो स्वभाव त्रिकाळउपयोगस्वरूप छे, क्षणिक पुण्य–पाप ते तेनो
स्वभाव नथी, त्रिकाळउपयोगस्वरूपमां क्षणिक विभावोनो सदाय अभाव छे.
आवा मंगळस्वरूप–उपयोगस्वरूप आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमा लीन थतां,
अनंतज्ञान–अनंतदर्शन–अनंतआनंद ने अनंतवीर्यरूप जे चतुष्टय प्रगटे ते
मंगल सुप्रभात छे. ‘मारो आत्मा त्रिकाळ उपयोगस्वरूप छे’–एम, रागना
अवलंबनवगरनी अंतमुर्ख श्रद्धा करीने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ते पण सुप्रभात
छे, सम्यग्ज्ञान प्रगट करवुं ते पण सुप्रभात छे, अंतरमां लीन थईने
सम्यक्चारित्र प्रगट करवुं ते पण सुप्रभात छे; ने तेना फळमां जे केवळज्ञानादि
चतुष्टय प्रगटया ते तो महान सुप्रभात छे. आत्मामां आवुं सुप्रभात खील्युं ते
खील्युं, पछी ते कदी अस्त थाय नहीं.
जुओ, आजना सुप्रभातना मांगळिकमां त्रिकाळउपयोगस्वरूप आत्मानी
महामंगळ वात आवी छे. सर्वज्ञभगवाने आत्माने त्रिकाळउपयोगस्वरूप जोयो
छे. अहा! ‘त्रि.... काळ.... उ.... प.... यो......ग.... स्व..... रू... प’ एम लक्षमां
लेतां ज रागथी भेदज्ञान थई जाय छे. त्रिकाळउपयोगस्वरूप आत्मा ते त्रिकाळ
मंगळस्वरूप छे, तेनी श्रद्धा–ज्ञान करतां वर्तमान अवस्थामां पण मंगळपणुं
प्रगटे छे. माटे तेना श्रद्धा–ज्ञान करवा ते पण अपूर्व मंगळ छे. अहा! ज्यां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप आराधना मंगळरूप छे, त्यां तेना फळरूप
केवळज्ञान पूर्णमंगळ होय एमां शुं आश्चर्य!! अने जेमांथी ए केवळज्ञान आवे
छे एवा त्रिकाळमंगळस्वरूप आत्माना महिमानी तो शी वात!
षटखंडागममां श्री वीरसेन आचार्य कहे छे के अरिहंत वगेरेनो
अनादिअनंत आत्मा मंगळरूप छे. अहा! वीरसेनस्वामी वीतरागी संत,
ज्ञानना अगाध दरीया हता; तेओ कहे छे के जे आत्मा केवळज्ञान पामवानो
छे ते त्रिकाळ मंगळ छे; अथवा जे आत्मा तीर्थंकर थनार छे ते पण
अनादिअनंत मंगळ छे.
(गुरुदेवे प्रमोदपूर्वक अनादिअनंत मंगळनी आ वात
करी ते सांभळता ज सभामां हर्षनाद छवाई गयो हतो.) तीर्थंकरोनो आत्मा तो
केवळज्ञानादिथी मंगळरूप छे, अने तीर्थंकरप्रकृतिथी उत्पन्न थयेलो तेमनो
औदयिकभाव पण मंगळरूप छे.
जीवने द्रव्यार्थिकनयनी प्रधानताथी अनादिअनंत मंगळरूप कह्यो; त्यां
शिष्य शंका करे छे के हे प्रभो! आ रीते जीवने अनादिअनंत मंगळ कहेवाथी तो
मिथ्यात्व अवस्थामां पण जीवने मंगलपणानी