ः ४ः आत्मधर्मः १८१
ऊजवाय छे, परंतु जेनी पासे जे होय तेना वडे ते उत्सव ऊजवे....सम्यग्दर्शनादि वडे मोक्षने साधतां साधतां
हजी जेने राग बाकी रही गयो छे एवा रागी जीवो शुभरागवडे, मोक्षने पामेला अने मोक्षने साधनारा जीवोनुं
बहुमान–भक्ति करीने उत्सव ऊजवे छे; तेमां राग तूटीने जेटले अंशे वीतरागता तरफ पोतानी परिणति झूके
छे तेटलो पोताने लाभ छे.
भगवान मोक्षनो वास्तविक उत्सव, चैतन्यस्वभावनी प्रतीत करीने वीतरागतावडे मोक्षनी आराधना
करवी ते छे. मोक्ष तो भगवान पाम्या, तेनो उत्सव ऊजवनारने पोतामां शुं आव्युं?–के भगवान जेवा शुद्ध
रत्नत्रयनो जेटलो भाव पोताना आत्मामां प्रगट कर्यो तेटलो मोक्षभाव पोतामां आव्यो, तेणे पोताना स्वकाळ
रूप दी’ ने स्वभावमां वाळीने दीवाळी ऊजवी, अने भगवानना मोक्षनो खरो उत्सव तेणे ज ऊजव्यो, आ
सिवाय जे जीव भगवानना मोक्षभावने ओळखे नहि, तेनो अंश पण पोतामां प्रगट करे नहि, ते जीव एकला
रागरूप बंधभाववडे मोक्षनो खरो उत्सव कई रीते ऊजवी शके? मोक्षना स्वरूपनी ओळखाणपूर्वक तेना प्रत्ये
जेवा बहुमान अने उल्लास ज्ञानीने आवशे तेवा अज्ञानीने नहि आवे. आ रीते, भगवानना मोक्षनो उत्सव
ऊजवनारनी जवाबदारी छे के भगवानना जेवो भाव एटले के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप वीतरागभाव
पोतामां प्रगट करवो.
भगवानना मोक्षनो उत्सव कोण ऊजवे?
–के जे मोक्षार्थी होय ते,
ते मोक्षार्थी जीव कई रीते निर्वाण पामे छे?
साक्षात् मोक्षनो अभिलाषी भव्यजीव अत्यंत वीतरागतावडे भवसागरने तरी जईने, शुद्धस्वरूप परम
अमृतसमुद्रने अवगाहीने शीघ्र निर्वाणने पामे छे.
जुओ, आजे भगवानना निर्वाणना दिवसे निर्वाण पामवानी वात आवी छे. भगवाननो आत्मा
मोक्षार्थी थईने चिदानंद स्वरूपनुं भान करीने तेमां लीनतावडे वीतराग थयो, ए रीते राग–द्वेष–मोहरूप
भगसागरथी पार थईने, परम आनंदना सागर एवा पोताना शुद्ध स्वरूपमां निमग्न थईने निर्वाण पाम्यो.
निर्वाणनो आवो ज मार्ग भगवाने भव्य जीवोने बताव्यो. हे भव्य जीवो! वीतरागता ज साक्षात् मोक्षमार्ग
छे....तेना वडे ज भव्यजीवो भवसागरने तरीने निर्वाणने पामे छे.
तेथी न करवो राग जरीये क्यांय पण मोक्षेच्छुए,
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे. १७२
आखा शास्त्रनुं तात्पर्य आचार्य भगवाने आ सूत्रमां बताव्युं छे. भव्यजीवो कई रीते भवसागरने तरे
छे? के वीतरागतावडे; बस! वीतरागता ते ज समस्त शास्त्रनुं तात्पर्य छे, ते ज शास्त्रनुं हार्द छे. क्यांय पण
जरीकेय राग राखीने भगसागरने तरातुं नथी, पण सघळी वस्तु प्रत्येना समस्त रागने छोडीने, अत्यंत
वीतराग थईने चैतन्यस्वरूपमां लीनतावडे ज भवसागरने तराय छे.
‘विस्तारथी बस थाओ. ’ आचार्यदेव कहे छे के वधु शुं कहीए? बधाय तीर्थंकर भगवंतो आ उपायथी
ज वीतरागतावडे ज भवसागरने तर्या छे, ने तेओए बीजा मुमुक्षु जीवोने पण ए वीतरागतानो ज उपदेश
आप्यो छे. आ रीते वीतरागता ज शास्त्रनुं तात्पर्य छे अने ते ज मोक्षमार्गनो सार छे. माटे,
जयवंत वर्तो वीतरागपणुं.....के जे साक्षात् मोक्षमार्गनो सार होवाथी शास्त्र– तात्पर्यभूत छे.”
“स्वस्ति साक्षात्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्रतात्पर्यभूताय वीतरागत्वायेति।”
आचार्यदेव साक्षात् मोक्षमार्ग प्रत्येना प्रमोदथी कहे छे के अहो! आवो मोक्षमार्ग जयवंत वर्तो!
“विस्तारथी बस थाओ....साक्षात् मोक्षमार्गना साररूप वीतरागता जयवंत वर्तो!”
– जेम अहीं आ प्रमाणे कह्युं छे, ए ज रीते प्रवचनसारमां पण पहेलो अधिकार पूरो करतां आचार्यदेवे कह्युं छे के
जयवंत वर्तो स्याद्वादमुद्रित जैनेंद्र शब्दब्रह्मः
जयवंत वर्तो ते शब्दब्रह्ममूलक आत्मतत्त्वउपलब्धि –
के जेना प्रसादने लीधे, अनादि संसारथी बंधायेली मोहग्रंथि तुरत ज छूटी गई; अने
जयवंत वर्तो परम वीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग–के जेना प्रसादथी आ आत्मा स्वयमेव धर्म थयो.