ः १८ः आत्मधर्मः १८२
ईडर (वैशाख सुद ३–४)ः अहीं बे पर्वतो छे, एक पर्वत उपर जिनमंदिर छे; बीजा पर्वत उपर श्रीमद्
राजचंद्रजीनी ध्यानभूमि (सिद्धशिला) छे. पर्वतनां दश्यो रळियामणां छे; ईडर शहेरमां पण जिनमंदिरो छे.
सोनासण (वैशाख सुद प) तलोद (वैशाख सुद छठ्ठः पहेली तथा बीजी) रखियाल (वैशाख सुद ७) देहगाम
(वैशाख सुद ९) कलोल (वैशाख सुद १०) आ पांचेय गाम संघ आगला दिवसे सांजे पहोंची जशे.)
सोनगढ (वैशाख सुद ११) सुप्रभाते सुवर्णपुरीमां प्रवेश.
*
– परम शांति दातारी–
* अध्यात्मभावना *
भगवानश्री पूज्यपादस्वामी रचित ‘समाधिशतक’
उपर परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनां
अध्यात्मभावना भरपूर वैराग्यपे्ररक प्रवचनोनो सार
रागद्वेषरहित थईने, चैतन्यस्वभावनी सन्मुख एकाग्र थवुं ते ज आत्मानुं अविक्षिप्तमन छे, ते ज
आत्मानुं तत्त्व छे; ने राग–द्वेषादिमां जोडायेलुं मन तो विक्षिप्त छे, तेने आत्मानुं तत्त्व गणता नथी. विक्षिप्त मन
तो आस्रव–बंध छे, अने अविक्षिप्तमन ते संवर–निर्जरा छे. तेथी विक्षिप्त मन छोडीने, चैतन्यस्वरूपमां वळीने
अविक्षिप्त मन धारण करवानुं आचार्यदेव कहे छे.–
अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तिं भ्रान्तिरात्मन;।
धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः।। ३६।।
अविक्षिप्त मन एटले के रागद्वेषरहित अंतरमां ठरेलुं ज्ञान, ते ज आत्मानुं तत्त्व छे, अने रागादिरूपे
परिणत विक्षिप्त मन ते तो आत्मानो विभ्रम छे–ते वास्तविकस्वरूप नथी. माटे हे भव्य! तुं ते अविक्षिप्त मनने
धारण कर, अने रागद्वेषमां वर्तता विक्षिप्त मनने धारण न कर.
‘अविक्षिप्तमन’ एटले निर्विकल्प स्थिरता, ते आत्मतत्त्व छे, अंतरमां ठरेली निर्मळ पर्यायने ज
अभेदपणे आत्मा कही दीधो; अने ‘विक्षिप्तमन’ एटले संकल्प–विकल्प, ते आत्मानुं स्वरूप नथी, देहादिमां
आत्मानी बुद्धि करवी ते भ्रांति छे, तेने अहीं विक्षिप्त मन कह्युं छे. परमां आत्मबुद्धिवाळा जीवनुं मन कदी
संकल्प–विकल्प रहित थईने ठरतुं नथी, एटले अविक्षिप्त थतुं नथी, पण रागद्वेषथी विक्षिप्त ज रहे छे; ते
खरेखर आत्मानुं तत्त्व नथी. देहादिथी ने विकारथी भेदज्ञान करीने जे जीव आत्मामां ज आत्मबुद्धि करे छे तेनुं
मन संकल्पविकल्प रहित थईने चैतन्यमां ठरे छे, ते