मागशरः २४८प ः १९ः
अविक्षिप्त मन आत्मानुं तत्त्व छे. अंतरमां वळेला सम्यक् भावश्रुतज्ञानने अहीं अविक्षिप्त मन कह्युं छे अने तेने
ज आत्मा कह्यो छे. आ ‘मन’ ने बाह्य विषयोनुं के जड मननुं अवलंबन नथी. चैतन्यनुं ज अवलंबन छे. “
भावमन पण आत्मानुं स्वरूप नथी” एम कहेवाय छे ते तो संकल्प–विकल्प–राग–द्वेषवाळा मननी वात छे; ने
अहीं अविक्षिप्त मनने आत्मा कह्यो छे ते तो संकल्प विकल्प रहित थईने अंतरमां एकाग्र थयेला निर्विकल्प
भावनी वात छे.
आत्मलाभने जेओ ईच्छता होय तेओ रागद्वेषवाळा विक्षिप्त चित्तने छोडो, ने चैतन्यमां ज मनने
एकाग्र करीने अविक्षिप्त करो. ते अविक्षिप्त मनथी आत्मानी प्राप्ति थाय छे.
बाह्यविषयोमां वर्ततुं संकल्प–विकल्प सहित मन ते संसारनुं कारण छे; ने चैतन्यमां ठरेलुं निर्विकल्प
मन ते मोक्षनुं कारण छे. बाह्यविषयोनुं मनन–चिंतवन करनारुं मन ते संसारनुं कारण छे; अने चैतन्य
विषयनुं मनन करनारुं मन ते मोक्षनुं कारण छे. माटे चैतन्यस्वरूपमां मनने स्थिर करवानो द्रढ प्रयत्न करो,
एम पूज्यपादस्वामीनो उपदेश छे.
ज्यां सुख लागे त्यां ज्ञान ठरे...परमां जेने सुख लागतुं होय तेनुं ज्ञान परथी हठीने स्वमां ठरे नहि;
रागमां जेने सुख लागतुं होय तेनुं ज्ञान रागथी खसीने स्वभावमां ठरे नहि. आनंद तो आत्मानो स्वभाव ज
छे एटले आत्मा पोते ज आनंदस्वरूपे परिणमे छे–आवो निर्णय करीने जे जीव अंतमुर्ख थाय छे तेनुं चित्त
अविक्षिप्त थाय छे, रागादिथी ते विक्षिप्त थतुं नथी. अहा! वास्तविक आनंद शुं छे तेनी पण जगतना जीवोने
खबर नथी, ने भ्रमणाथी बाह्य विषयोमांथी आनंद लेवा माटे ते तरफ ज ज्ञानने जोडे छे, एटले तेनुं चित्त
सदाय बाह्य विषयो प्रत्येना रागद्वेषथी विक्षिप्त ज रहे छे. अने जेनुं चित्त अंतर्मुख थईने चैतन्यना अतीन्द्रिय
आनंदना वेदनमां जोडायेलुं छे तेनुं चित्त अविक्षिप्त रहे छे, कोई पण विषयोथी विक्षिप्त थतुं नथी, केमके बाह्य
विषयो तरफ तेनुं वलण ज नथी. आत्मानो आनंद ‘निर्विषय’ एटले के बाह्य विषयो विनानो छे. अहा! ज्यां
अंतरना आनंदना अनुभवमां लीन थयो त्यां जगतना बाह्य विषयो तेने शुं करे? जगतनो अनुकूळ विषय
तेने ललचाववा समर्थ नथी, तेमज गमे तेवो प्रतिकूळ विषय पण तेने डगाववा समर्थ नथी; तेना चित्तमां कोई
प्रत्येना रागद्वेषनो विक्षेप ज रह्यो नथी, समभावमां तेनुं चित्त स्थिर थयुं छे. आवुं अविक्षिप्त चित्त ते मोक्षनुं
कारण छे; माटे हे भव्य जीवो! आनंदस्वरूप आत्माने ओळखीने चित्तने तेमां स्थिर करो एवो संतोनो उपदेश
छे.ाा ३६ाा
क्यां कारणथी मन विक्षिप्त थाय छे अने तेने कई रीते अविक्षिप्त करवुं ते हवे बतावे छे.
अविधाभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः।
तदेव ज्ञानसंस्कारेः स्वतस्तत्वेऽवतिष्ठते।। ३७।।
देह ते ज हुं, एवी भ्रमणा ते अविद्या छे, ते अविद्याना संस्कारने लीधे मन परने आधीन वर्ततुं थकुं
क्षुब्ध थाय छे; पण हुं ज्ञायक छुं.–एवा सम्यग्ज्ञानरूप विद्याना संस्कारथी मन पोताना स्वतत्त्वमां एकाग्र थाय
छे ने विक्षिप्त थतुं नथी.
(वीर संवत २४८२, जेठ वद ७)
आत्माना ज्ञानानंदस्वरूपमां एकाग्रता ते समाधि छे; अने राग–द्वेषमां एकाग्रता ते असमाधि छे.
आत्मज्ञान ते समाधिनुं कारण छे, ने अज्ञान ते असमाधिनुं कारण छे.
देह ते हुं, देहने हुं पवित्र राखुं–एवी मान्यता ते अविद्या छे, ते अविद्याना संस्कारथी जीवनुं मन
शरीरादि बाह्य विषयोमां ज वर्ते छे; पण ज्ञानस्वरूपमां स्थिर थतुं नथी. हुं तो ज्ञायक छुं, देहथी भिन्न–रागथी
भिन्न पवित्र ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं–एवा ज्ञानसंस्कारवडे मन आत्मामां स्थिर थाय छे. (मन–ज्ञाननो उपयोग)
शरीर तो जड छे, अशुचीनुं धाम छे, अस्थिर छे ने पर छे, छतां जीव तेने ज आत्मा माने छे,
तेने शुची, स्थिर अने पोतानुं माने छे, ते अविद्या छे; ते अविद्याना ज अभ्यासने लीधे अज्ञानीनुं मन
क्षुब्ध थईने बाह्यविषयोमां ज वर्ते छे. पण हुं देहथी भिन्न, शुचि, स्थिर अने ज्ञायकस्वरूप छुं, आ शरीर
मारुं नथी–आवा भेदज्ञाननी भावनाथी पोताना चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रता थाय छे; ते ज समाधिनो
उपाय छे.