नुकशान थवानी मान्यता छे त्यां रागद्वेष वर्त्या ज करे छे. एक तरफ ज्ञायकस्वरूप पवित्र आत्मा छे...ने बीजी
तरफ समस्त बाह्यविषयो छे...जे जीव अंतरमां वळीने वारंवार आत्मानी भावना करे छे तेने रागद्वेष रहित
उपशांतभावरूप समाधि थाय छे, अने जे जीव बाह्यविषयोनी भावना भावे छे तेने रागद्वेषरूप विक्षेपथी
असमाधि ज वर्ते छे. माटे ज्ञान–संस्कार एटले के शुद्ध आत्मानी भावना ते ज समाधिनुं कारण छे. अने
बाह्यविषयोनी भावनारूप अविद्याना संस्कार ते असमाधिनुं कारण छे.
ज अविक्षिप्त मन छे. आत्माना आनंदना वेदन वगर मनमांथी विक्षेप मटे नहि ने समाधि थाय नहि.
चैतन्य तरफ झूकीने जेम जेम तेना आनंदनुं वेदन वधतुं जाय छे तेम तेम मनमांथी राग–द्वेषरूप विक्षेप
छूटता जाय छे ने वीतरागी शांति–समाधि थती जाय छे.
ठरतुं नथी. रागद्वेषनु मूळ अज्ञान, ते तो टळी गयुं छतां तेना अभ्यासना संस्कारने लीधे हजी राग–द्वेष
सर्वथा टळ्या नथी, कंई पूर्वना कारणे वर्तमान रागद्वेष थाय छे. एम नथी, पण वर्तमानमां पोताना
अपराधने लीधे पोते ते संस्कार चालु राख्या छे तेथी हजी रागद्वेष थाय छे. आ रागद्वेषनो कई रीते
नाश थाय? के पोताना ज्ञानतत्त्वना द्रढ संस्कारवडे स्वरूपमां स्थिर थतां राग– द्वेषनो नाश थई जाय
छे. सामसामा बे संस्कार लीधा–एक अविद्याना संस्कार, ने बीजा ज्ञानसंस्कार, ज्ञानना उग्र संस्कार
एटले वारंवार तीव्र रसथी तेनो परिचय ते ज अज्ञानना संस्कारना नाशनो उपाय छे. जेम जेम
ज्ञानमां एकाग्रता थती जाय छे तेम तेम रागद्वेषना संस्कार छूटता जाय छे ने वीतरागता वधती जाय
छे, माटे ज्यां सुधी ज्ञान पोतामां लीन थईने वीतरागता न थाय त्यां सुधी अति द्रढतापूर्वक
ज्ञानतत्त्वनी भावना कर्या ज करवी.