Atmadharma magazine - Ank 182
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः मागशरः १८२
ज्ञानस्वभावनी जेने भावना नथी ने बाह्य विषयोमां (शुभमां के अशुभमां) ज जेनुं चित्त वर्ते छे तेनुं
चित्त कदी अविक्षिप्त थाय नहीं; ज्ञानस्वभावनी भावना वगर कोई रीते शांति थाय नहि. ज्यां बहारथी लाभ–
नुकशान थवानी मान्यता छे त्यां रागद्वेष वर्त्या ज करे छे. एक तरफ ज्ञायकस्वरूप पवित्र आत्मा छे...ने बीजी
तरफ समस्त बाह्यविषयो छे...जे जीव अंतरमां वळीने वारंवार आत्मानी भावना करे छे तेने रागद्वेष रहित
उपशांतभावरूप समाधि थाय छे, अने जे जीव बाह्यविषयोनी भावना भावे छे तेने रागद्वेषरूप विक्षेपथी
असमाधि ज वर्ते छे. माटे ज्ञान–संस्कार एटले के शुद्ध आत्मानी भावना ते ज समाधिनुं कारण छे. अने
बाह्यविषयोनी भावनारूप अविद्याना संस्कार ते असमाधिनुं कारण छे.
पहेलां अंतर्मुख थईने, देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धावडे सम्यग्दर्शन करवुं ते अपूर्व
विद्या छे, ने ते पण समाधि छे. तेने चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनुं स्वसंवेदन थाय छे, आनंदनुं वेदन ते
ज अविक्षिप्त मन छे. आत्माना आनंदना वेदन वगर मनमांथी विक्षेप मटे नहि ने समाधि थाय नहि.
चैतन्य तरफ झूकीने जेम जेम तेना आनंदनुं वेदन वधतुं जाय छे तेम तेम मनमांथी राग–द्वेषरूप विक्षेप
छूटता जाय छे ने वीतरागी शांति–समाधि थती जाय छे.
सम्यज्ञान पछी पण जेटला रागद्वेष छे तेटलो चैतन्यनी स्थिरतामां विक्षेप पडे छे. जीवने
अनादिथी अज्ञानदशामां रागद्वेष करवानी टेव पडी गई छे, ते रागद्वेषना संस्कारने लीधे मन चैतन्यमां
ठरतुं नथी. रागद्वेषनु मूळ अज्ञान, ते तो टळी गयुं छतां तेना अभ्यासना संस्कारने लीधे हजी राग–द्वेष
सर्वथा टळ्‌या नथी, कंई पूर्वना कारणे वर्तमान रागद्वेष थाय छे. एम नथी, पण वर्तमानमां पोताना
अपराधने लीधे पोते ते संस्कार चालु राख्या छे तेथी हजी रागद्वेष थाय छे. आ रागद्वेषनो कई रीते
नाश थाय? के पोताना ज्ञानतत्त्वना द्रढ संस्कारवडे स्वरूपमां स्थिर थतां राग– द्वेषनो नाश थई जाय
छे. सामसामा बे संस्कार लीधा–एक अविद्याना संस्कार, ने बीजा ज्ञानसंस्कार, ज्ञानना उग्र संस्कार
एटले वारंवार तीव्र रसथी तेनो परिचय ते ज अज्ञानना संस्कारना नाशनो उपाय छे. जेम जेम
ज्ञानमां एकाग्रता थती जाय छे तेम तेम रागद्वेषना संस्कार छूटता जाय छे ने वीतरागता वधती जाय
छे, माटे ज्यां सुधी ज्ञान पोतामां लीन थईने वीतरागता न थाय त्यां सुधी अति द्रढतापूर्वक
ज्ञानतत्त्वनी भावना कर्या ज करवी.
समयसारमां कहे छे के–
भावयेद्भेद विज्ञान मिदमच्छिन्नधारया।
तावधावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।’
आ भेदविज्ञान अच्छिन्नधाराथी–अखंडप्रवाहरूपे विच्छेद पडया वगर त्यां सुधी भाववुं के ज्यां सुधी
परभावोथी छूटी ज्ञान ज्ञानमां ज ठरी जाय.
ए रीते ज्ञानमां स्थिरताना अभ्यासवडे एवी वीतरागी समाधि थाय छे के मान–अपमानना
प्रसंगमां पण तेना चित्तमां पण विक्षेप थतो नथी–एम हवेनी गाथामां कहेशे.ाा ३७ाा
जैन धर्मना प्राण
सर्वज्ञता जैन धर्मना प्राण छे
जेम प्राण विना जीवन होतुं नथी तेम
सर्वज्ञना निर्णय वगर जैन धर्म होतो नथी