Atmadharma magazine - Ank 182
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 23

background image
मागशरः २४८पः पः
कोंग्रेसप्रमुख श्री ढेबरभाई दिल्हीमां स्वागत–प्रवचन करी रह्या छे.
अनुभव–सन्देश है, और उनकी बात तर्कशुद्ध है. उनके उपकारका बदला हम लोग कैसे देवे? उनके लिये
तो एक ही बदला है कि–हम कोशीष करे उनके मार्ग पर चलनेकी! कोरी तारीफथी तेमने संतोष नहि,
थाय, पण तेओ आपणने जे सन्देश संभळावे छे ते समजवाथी ज तेमने संतोष थशे. ईसलिये
प्रवचनमें आप वारंवार कहेतें है कि “समझे?” “समजाय छे?” जेम गुरु प्रेमथी शिष्यने पढावतां
कहे के बेटा! समझा! समझा! वैसे आप भी प्रवचनमें बारबार श्रोताजनोंसे पूछते है कि “समझमें
आता है.......?”
महाराजश्री जो चीज समझा रहे है वह भारतवर्षकी मूल चीज है, और आज भारतवर्षकी ईस चीजकी
सारे विश्वको जरूर है, बडे बडे लोगोंका हृदय सेवाभावसे भरा हुआ है; उसमें महाराजश्रीका संदेश ऐसा नहीं
कि तुम सेवक मीट जाओ, लेकिन महाराजश्री यह कहेते है कि, तुम समझो कि दुनियांका शत्रु अणुबम्ब नहीं है,
उसको उत्पन्न करनेंवाली व्यक्ति भी नहीं, लेकिन जो रागद्वेषकी भावना हे वही दुनियाका शत्रु है; रागद्वेषकी
प्रबल भावनाने ही एसे हथियारोंकी उत्पत्ति की है, ईसलिये हथियार शत्रु नहीं किन्तु राग–द्वेष ही शत्रु है
जिस विकारात्माक भूमि के उपर हम एक दूसरोकों शत्रु समझ रहे हे उसका नाश कैसे है यह महाराजश्री बतला
रहे है.
अपना भारतदेश अध्यात्मप्रधान है. महाराजश्रीका सन्देश भारतवर्षकी सभ्यता और संस्कृतिकी नीव–
जड है. अगर भारतवर्षने सारा विश्वमां देदीप्यमान बनवुं हशे तो ते आ नींव (पाया) उपर ज बनी शकशे.
अपनी ईस नींवके द्वारा आज भारतवर्ष दुनियाको ऊंचा ऊठानेका प्रयत्न कर रहा है. ‘पंचशील’ के द्वारा
भारत आज निर्वैरबुद्धिका फेलाव करना चाहता है; महाराजश्री कहेते है कि रागद्वेष ही वैराबुद्धिका मूल है;
निर्वैरबुद्धि कैसे हो यह आप समझाते है. महाराजश्रीकी