जेठालाल संघजीने त्यां गुरुदेवनुं भोजन थयुं. बीजे दिवसे सवारे ८ वागतां त्यांथी प्रस्थान करीने पू. गुरुदेवे
मुंबई नगरीमां प्रवेश कर्यो.
जिनमंदिरना दर्शन करीने, मम्मादेवी प्लोटमां “महावीर नगर” मां रचेला भव्य मंडपमां पधारीने पू. गुरुदेवे
मांगळिक संभळाव्युं हतुं. मुंबई नगरीना, मुमुक्षुओ घणा ज उल्लासपूर्वक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवनी
तैयारी करी रह्या छे. महा सुद एकमथी छठ्ठ सुधी पंचकल्याणक महोत्सव थशे, त्यार बाद महा सुद आठमना
रोज पू. गुरुदेव यात्रिकसंघ सहित मुंबई नगरीथी मंगल प्रस्थान करशे.
बाह्यलक्षे कर्युं छे पण तेनाथी तेने जराय शांति–सुख के धर्मनी प्राप्ति थई नथी. आत्मतत्त्वने जाण्या
वगर अनंत वार अशुभ तेम ज शुभ भावो कर्या पण तेनाथी संसारभ्रमणनो अंत न आव्यो.
संसारभ्रमणनो अंत केम आवे तेनी आ वात छे.
होय तो ते पुण्य छे, परंतु तेना वडे संसारभ्रमणथी छूटकारो थतो नथी. चैतन्यतत्त्वने जाणनारी
अध्यात्मविद्यावडे ज संसार–भ्रमणनो अंत आवे छे. ते अध्यात्मविद्या भारतनी मूळ वस्तु छे, ने तेनी
ज आ वात छे. अत्यारे तो जीवोने अध्यात्मविद्या दुर्लभ थई पडी छे. एक वार पण जो अध्यात्मविद्या
शीखे तो जीवना संसारभ्रमणनो अंत आवी जाय.
जोवामां आवे छे, तो शुं हिंसादि पापना फळमां ते सगवडता छे? ना; हिंसादि पापभाव ते कारण, ने
बहारनी अनुकूळता ते कार्य,–एवो कारण–कार्यनो मेळ नथी; हिंसादि भावथी तो नवुं पाप बंधाय छे,
अने जे