Atmadharma magazine - Ank 183
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४८५ : आत्मधर्म : ९ :
बाद, बपोरे २ाा थी ३ प्रवचन करीने पू. गुरुदेव ‘खार’ पधार्या.... त्यां भक्तमंडळे स्वागत कर्युं.... तथा शेठश्री
जेठालाल संघजीने त्यां गुरुदेवनुं भोजन थयुं. बीजे दिवसे सवारे ८ वागतां त्यांथी प्रस्थान करीने पू. गुरुदेवे
मुंबई नगरीमां प्रवेश कर्यो.
पू. गुरुदेव मुंबई नगरीमां पधारतां हजारो भक्तजनोए धामधूमथी उमळकाभर्युं भव्य स्वागत कर्युं....
स्वागत प्रसंगे ठेर ठेर अवनवा शणगारथी मुंबई नगरी शोभती हती.... स्वागत दरमियान वच्चे
जिनमंदिरना दर्शन करीने, मम्मादेवी प्लोटमां “महावीर नगर” मां रचेला भव्य मंडपमां पधारीने पू. गुरुदेवे
मांगळिक संभळाव्युं हतुं. मुंबई नगरीना, मुमुक्षुओ घणा ज उल्लासपूर्वक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवनी
तैयारी करी रह्या छे. महा सुद एकमथी छठ्ठ सुधी पंचकल्याणक महोत्सव थशे, त्यार बाद महा सुद आठमना
रोज पू. गुरुदेव यात्रिकसंघ सहित मुंबई नगरीथी मंगल प्रस्थान करशे.
पू. गुरुदेवनो मंगल प्रभावना उदय जयवंत वर्तो.
* * * * *
आत्मविद्या अने धर्मनी क्रिया
[वीर संवत २४८५, पोष वद त्रीजे मुंबईमां प्रवचन]
समयसार–कर्ताकर्मअधिकार
देहथी भिन्न आ चैतन्यतत्त्व अनादिअनंत छे; अनादिकाळथी संसार परिभ्रमण करतां तेणे
पोताना वास्तविक स्वरूपनी ओळखाणनो खरो प्रयत्न कदी क्षणमात्र कर्यो नथी, जे कांई कर्युं ते
बाह्यलक्षे कर्युं छे पण तेनाथी तेने जराय शांति–सुख के धर्मनी प्राप्ति थई नथी. आत्मतत्त्वने जाण्या
वगर अनंत वार अशुभ तेम ज शुभ भावो कर्या पण तेनाथी संसारभ्रमणनो अंत न आव्यो.
संसारभ्रमणनो अंत केम आवे तेनी आ वात छे.
जगतनी अनेक प्रकारनी बधी विद्याओमां चैतन्यतत्त्वने जाणनारी अध्यात्मविद्या ते सर्वोत्कृष्ट
विद्या छे. लक्ष्मी मेळववा माटे विद्या भणवानो भाव ते तो पाप छे अने कदाच्ति सेवा वगेरेनो भाव
होय तो ते पुण्य छे, परंतु तेना वडे संसारभ्रमणथी छूटकारो थतो नथी. चैतन्यतत्त्वने जाणनारी
अध्यात्मविद्यावडे ज संसार–भ्रमणनो अंत आवे छे. ते अध्यात्मविद्या भारतनी मूळ वस्तु छे, ने तेनी
ज आ वात छे. अत्यारे तो जीवोने अध्यात्मविद्या दुर्लभ थई पडी छे. एक वार पण जो अध्यात्मविद्या
शीखे तो जीवना संसारभ्रमणनो अंत आवी जाय.
जीवतत्त्व बहारना संयोगोथी भिन्नवस्तु छे, बहारना संयोगो तेने आधीन नथी. जुओ, कोई
जीव वर्तमानमां हिंसा करतो होय, जूठूं बोलतो होय, चोरी करतो होय, छतां तेने बहारमां सगवडता
जोवामां आवे छे, तो शुं हिंसादि पापना फळमां ते सगवडता छे? ना; हिंसादि पापभाव ते कारण, ने
बहारनी अनुकूळता ते कार्य,–एवो कारण–कार्यनो मेळ नथी; हिंसादि भावथी तो नवुं पाप बंधाय छे,
अने जे