Atmadharma magazine - Ank 183
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 25

background image
: १० : आत्मधर्म : पोष : २४८५ :
बहारनी सगवडता देखाय छे ते पूर्वना पुण्यनुं फळ छे. ए ज रीते वर्तमानमां कोई जीवने दया–भक्ति–
न्यायवृत्ति वगेरे शुभपरिणामो होवा छतां तेने बहारमां अगवडता पण जोवामां आवे छे. तेनुं कारण?
वर्तमान जे पुण्यभाव छे ते कारण, ने प्रतिकूळता तेनुं कार्य–एवो कारणकार्यनो मेळ नथी. वर्तमान
शुभपरिणाम होवा छतां तेने जे प्रतिकूळ संयोगो देखाय छे ते तो पूर्वना कोई पापनुं फळ छे. आ रीते
बहारनो संयोग तो पूर्वना पुण्य–पापने आधीन छे, जीवनी वर्तमान ईच्छाने आधीन ते संयोग नथी.
परंतु अहीं हवे एम बताववुं छे के बाह्य संयोगने आधीन जीवनो धर्म नथी; बहारनो अनुकूळ संयोग
हो के प्रतिकूळ हो, परंतु चैतन्य स्वभावमां अंतर्मुख एकाग्रतावडे सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगट
करवा ते धर्मनी क्रिया छे; ते क्रिया जीवनी स्वतंत्र स्वभावभूतक्रिया छे. धर्मी जीव आवी स्वभावक्रियानो
कर्ता थाय छे. अज्ञानी जीव आत्मविद्याने भूलीने विकारी क्रियानो कर्ता थाय छे, ते अधर्मनी क्रिया छे,
तेनो अहीं मोक्षमार्गमां निषेध छे.
आ ‘समयसार’ ते अध्यात्मविद्यानुं उत्कृष्ट शास्त्र छे. चैतन्यविद्या ते ज खरी विद्या छे, तेमां
अनंत अपूर्व अचिंत्य पुरुषार्थ छे. चैतन्यविद्या कहो, आत्मविद्या कहो, अध्यात्मविद्या कहो के धर्मनी
विद्या कहो, तेमां अतीन्द्रिय आनंद छे, ने ते ज मोक्षना कारणरूप क्रिया छे. पुण्यनी क्रिया ते तो विकारी
क्रिया छे, तेमां आकुळता छे, बंधन छे, तेनुं फळ संसार छे. परंतु अज्ञानीओ बाह्य द्रष्टिथी पुण्यनी
क्रियाने ज देखे छे ने तेने ज तेओ मोक्षमार्ग माने छे, अंतरनी निर्विकारी ज्ञानक्रियाने तेओ जाणता
नथी. जेम खीले बांधेली भेंस कूदाकूद करती होवा छतां खीलो तो धरबायेलो स्थिर छे; त्यां साधारण
जनो भेंसनी कूदाकूद देखीने तेनुं जोर देखे छे, पण भेंस कूदाकूद करती होवा छतां खीलो स्थिर छे, तेनुं
जोर भेंस करतां विशेष छे. एम विचक्षण पुरुष देखे छे; तेम अज्ञानीओ बहारनी कूदाकूद जेवी शरीरनी
क्रियाने के शुभपरिणामने ज देखीने तेने धर्मनी क्रिया माने छे; पण देहथी पार ने रागथी पण पार एवी
चैतन्यक्रियाने तेओ देखता नथी. धर्मी जीव अंतरमां देहथी पार ने रागथी पार एवी स्थिर
ज्ञानक्रियारूपे परिणमे छे ते धर्म छे. धर्ममां अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन छे, ते आत्मरस छे. अज्ञानी
अनादिथी बाह्य रसमां सुख मानीने विकाररसने वेदी रह्यो छे, पण अंतरना अतीन्द्रिय आनंदरूप
आत्मरसनुं तेने वेदन नथी. आत्मरसना वेदन वगर अनंतकाळना दुःखरूप भूख भांगे नहि, ने
आत्मानी शांति थाय नहीं. जगतमां अनादिथी चैतन्यविद्या साधनारा संतो थता आव्या छे, तेओ
चैतन्य विद्यावडे पोतानी पूर्णानंददशाने साधीने मुक्त थाय छे. तेओए चैतन्य विद्या जेम छे तेम
जगतने बतावी, ने जे पात्र जीवो हता तेओ पोतानी पात्रता अनुसार समज्या. जेओ समज्या तेमणे
पोतानुं हित साध्युं, परंतु बीजाने समजावी देवानी कोईनी ताकात नथी. जगतना जीवो स्वाधीन छे, –
समजीने तरे के अज्ञानथी रखडे ते बंनेमां ते स्वतंत्र छे, कोई तेने रखडावे के बीजो कोई तेने तारे–एवी
पराधीनता नथी. भाई, आवो मनुष्य अवतार पामीने तारी आत्मविद्या शीख, के जे विद्याथी तारुं
वहाण आ भवसागरथी पार उतरे. बहारनी क्रियाओ तो ताराथी भिन्न छे, ने रागादि विकारी क्रियामां
पण तारी शांति नथी. तारी शांति तारी चैतन्यक्रियामां छे. माटे तारा चिदानंद स्वभावने तुं ओळख.
तारा आत्माने समजवानी तारामां ताकात न होय–ए केम बने? तारा आत्माने समजवानी तारामां
ताकात छे, अने तारी ते ताकात जाणीने ज संतो तने तेनो उपदेश आपे छे, माटे हे भाई! आवो दुर्लभ
मनुष्य अवतार पाम्यो तेमां सत्समागमे तारी आत्मशक्तिनो विश्वास करीने, आत्माने समजवानो
उद्यम कर....चैतन्य विद्यावडे आत्मस्वरूपनी समजण करवाथी भवभ्रमणनो अंत आवशे ने अपूर्व
अतीन्द्रिय सुखनी प्राप्ति थशे. अंतरनी आवी आत्मविद्या ते ज धर्मनी क्रिया छे, ते ज मोक्षनुं कारण छे,
मोक्षने माटे भगवाने ते क्रिया उपदेशी छे.