परमार्थे आ जीवनुं स्वरूप छे (–जिनस्वरूप ते निजस्वरूप), एटले भगवानना यथार्थ स्वरूपने जे ओळखे
तेने पोताना आत्मस्वरूपनी ओळखाण थया विना रहे नहि. भगवाननो आत्मा ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण छे,
मारो स्वभाव पण तेवो ज छे, भगवानने राग नथी, मारे राग छे ते मारुं वास्तविक स्वरूप नथी; भगवानने
नथी. आम भगवान जेवा ज पोताना आत्मस्वभावनी ओळखाण करवी ते परमात्मदशानो प्रथम उपाय छे.
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०
वृत्तिओ साथे मारुं ज्ञान एकमेक नथी; जो एकमेक होय तो टळी केम शके? ते रागादि टळीने पूर्ण वीतरागता
अने सर्वज्ञता थई शके छे.–आम, राग होवा छतां तेनाथी भिन्नतानुं भान करवुं ते प्रथम धर्म छे. अंतरनी
रुचि अने लगनी वडे आत्मा समजी शकाय छे. बहारमां देहादिनी क्रिया करवानुं तो आत्माना हाथमां छे ज
नहि, ते तो आत्माथी भिन्न जडनुं कार्य छे. आत्मा पोताना अंतरमां यथार्थ ज्ञान करी शके छे, अने कां तो
अज्ञानभावे विकारनो कर्ता थाय छे. ज्ञानी तो ज्ञान अने विकारने भिन्नभिन्न जाणतो थको, ज्ञायकभावने ज करे
छे, रागादि विकारने करतो नथी, पण तेने पोताथी भिन्न जाणीने तेनाथी ते पाछो वळे छे.
करी शकुं छुं,–परंतु ते कांई देहादिनी क्रिया करी शकतो नथी. अहीं तो अंदरनी सूक्ष्म वात छे के ज्ञानानंद
स्वभावनी सन्मुख थयेलो धर्मी जीव रागादि विकारने जरा पण करतो नथी, ते जाणे छे के आ रागादि विकारी
भावो जीवस्वभाव नथी, जीवस्वभावथी तेओ भिन्न छे तेथी तेओ मारुं कार्य नथी; ज्ञानस्वभाव सन्मुख वर्ततो
थको ज्ञानस्वभावना कार्यने ज हुं करुं छुं. –अंतर्मुख थईने आत्माना स्वभावनुं अने विकारनुं आवुं भेदज्ञान
करवुं ते अपूर्व धर्म छे.
अनादिथी अज्ञानभावे ‘हुं कर्ता ने विकार मारुं कार्य’ एम मानतो हतो, पण जे क्षणे विकार अने स्वभावनुं
भेदज्ञान थयुं ते ज क्षणे विकारना कर्तृत्वथी आत्मा पाछो वळी गयो. आ रीते भेदज्ञानवडे आस्रवो अटकी जाय
छे ने संवररूप धर्म थाय छे. भेदज्ञान थवानो ने मिथ्यात्वादिना आस्त्रवो अटकवानो एक ज काळ छे.
ज उपादेयबुद्धि थई. विभावने विपरीत जाणतां तेमां हेय–बुद्धि थई एटले तेनुं कर्तृत्व छूटी गयुं; अने जडने
पोताथी तद्न जुदा जाणतां देहादिनी क्रियाथी लाभ–नुकसान थवानी बुद्धि न रही, तेमज ते क्रियामां कर्तृत्वबुद्धि
न रही. –आ बधुं एक साथे ज थाय छे. आवी दशा वगर कदी धर्मनी शरूआत थती नथी.
आस्रवो अटकी जाय छे?