Atmadharma magazine - Ank 183
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : पोष : २४८५ :
पामेला परमात्मा केवा होय–तेनी वास्तविक ओळखाण पण कदी करी नथी. परमात्मानुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं ज
परमार्थे आ जीवनुं स्वरूप छे (–जिनस्वरूप ते निजस्वरूप), एटले भगवानना यथार्थ स्वरूपने जे ओळखे
तेने पोताना आत्मस्वरूपनी ओळखाण थया विना रहे नहि. भगवाननो आत्मा ज्ञान–आनंदथी परिपूर्ण छे,
मारो स्वभाव पण तेवो ज छे, भगवानने राग नथी, मारे राग छे ते मारुं वास्तविक स्वरूप नथी; भगवानने
पहेलांं संसारदशामां राग हतो पण ते टाळीने तेओ वीतराग थया, माटे राग ते आत्मानुं वास्तविक स्वरूप
नथी. आम भगवान जेवा ज पोताना आत्मस्वभावनी ओळखाण करवी ते परमात्मदशानो प्रथम उपाय छे.
श्री कुंदकुंदाचार्यदेव प्रवचनसारमां कहे छे के:
जे जाणतो अर्हंतने गुण द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०
धर्मने माटे पहेलांं शुं करवुं?
पहेलांं एवुं भान करवुं जोईए के मारो आत्मा ज्ञानस्वरूपी छे; वर्तमान अवस्थामां रागादि
विकारभावो वर्तता होवा छतां, तेओ मारा स्वभावथी विरुद्ध छे, मारो स्वभाव तेमनाथी भिन्न छे. विकारी
वृत्तिओ साथे मारुं ज्ञान एकमेक नथी; जो एकमेक होय तो टळी केम शके? ते रागादि टळीने पूर्ण वीतरागता
अने सर्वज्ञता थई शके छे.–आम, राग होवा छतां तेनाथी भिन्नतानुं भान करवुं ते प्रथम धर्म छे. अंतरनी
रुचि अने लगनी वडे आत्मा समजी शकाय छे. बहारमां देहादिनी क्रिया करवानुं तो आत्माना हाथमां छे ज
नहि, ते तो आत्माथी भिन्न जडनुं कार्य छे. आत्मा पोताना अंतरमां यथार्थ ज्ञान करी शके छे, अने कां तो
अज्ञानभावे विकारनो कर्ता थाय छे. ज्ञानी तो ज्ञान अने विकारने भिन्नभिन्न जाणतो थको, ज्ञायकभावने ज करे
छे, रागादि विकारने करतो नथी, पण तेने पोताथी भिन्न जाणीने तेनाथी ते पाछो वळे छे.
अज्ञानी ज्ञानस्वभावने भूलीने, विकारमां तन्मयपणुं मानीने तेनो कर्ता थाय छे, परंतु ज्ञान अने
विकार सिवाय जडनी क्रियामां कोई आत्मा कांई करी शकतो नथी. अज्ञानी एम माने भले के देहादिनी क्रिया हुं
करी शकुं छुं,–परंतु ते कांई देहादिनी क्रिया करी शकतो नथी. अहीं तो अंदरनी सूक्ष्म वात छे के ज्ञानानंद
स्वभावनी सन्मुख थयेलो धर्मी जीव रागादि विकारने जरा पण करतो नथी, ते जाणे छे के आ रागादि विकारी
भावो जीवस्वभाव नथी, जीवस्वभावथी तेओ भिन्न छे तेथी तेओ मारुं कार्य नथी; ज्ञानस्वभाव सन्मुख वर्ततो
थको ज्ञानस्वभावना कार्यने ज हुं करुं छुं. –अंतर्मुख थईने आत्माना स्वभावनुं अने विकारनुं आवुं भेदज्ञान
करवुं ते अपूर्व धर्म छे.
भेदज्ञान करतां शुं थाय छे?
मारो चैतन्यस्वभाव ज मारे उपादेय छे, रागादि मारे उपादेय नथी,–आम चैतन्यस्वभावमां अंतर्मुख
थईने तेने उपादेय करतां अपूर्व आनंदनुं वेदन थयुं अने ते क्षणे ज विकारना कर्तृत्वथी आत्मा छूटी गयो.
अनादिथी अज्ञानभावे ‘हुं कर्ता ने विकार मारुं कार्य’ एम मानतो हतो, पण जे क्षणे विकार अने स्वभावनुं
भेदज्ञान थयुं ते ज क्षणे विकारना कर्तृत्वथी आत्मा पाछो वळी गयो. आ रीते भेदज्ञानवडे आस्रवो अटकी जाय
छे ने संवररूप धर्म थाय छे. भेदज्ञान थवानो ने मिथ्यात्वादिना आस्त्रवो अटकवानो एक ज काळ छे.
स्वभावनुं सामर्थ्य; विभावनी विपरीतता; जडनुं जुदापणुं.
ज्यां चैतन्यस्वभावनुं बेहद सामर्थ्य जाण्युं, विभावने पोताना स्वभावथी विपरीत जाण्यो, अने जडने
पोताथी तद्न जुदा जाण्या त्यां धर्मीनी द्रष्टि अंर्तस्वभावमां वळी गई, स्वभावनुं बेहद सामर्थ्य जाणतां तेमां
ज उपादेयबुद्धि थई. विभावने विपरीत जाणतां तेमां हेय–बुद्धि थई एटले तेनुं कर्तृत्व छूटी गयुं; अने जडने
पोताथी तद्न जुदा जाणतां देहादिनी क्रियाथी लाभ–नुकसान थवानी बुद्धि न रही, तेमज ते क्रियामां कर्तृत्वबुद्धि
न रही. –आ बधुं एक साथे ज थाय छे. आवी दशा वगर कदी धर्मनी शरूआत थती नथी.
जिज्ञासु शिष्यने पूछे छे–भेदज्ञाननुं स्वरूप.
धर्मनो जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के हे स्वामी! भेदज्ञाननी उत्पत्ति थवानो अने आस्रवोना अटकवानो
एकज काळ छे, के तेमने क्षणभेद छे? पहेलांं ज्ञान थाय ने पछी आस्रवो अटके–एम छे? के ज्ञान थयुं ते क्षणे ज
आस्रवो अटकी जाय छे?
तेना उत्तरमां श्री आचार्यदेव कहे छे के–सांभळ, हे शिष्य! भेदज्ञान थवानो अने आस्रवो अटकवानो