: १८ : आत्मधर्म : पोष : २४८५ :
रागथी छूटो अनुभवमां आवे, त्रणकषायनो नाश थई जाय, आवी अंतरनी दशापूर्वक बाह्यमां पण तद्न निर्ग्रंथ
दशा थई जाय,–आवी जैनमुनिओनी दशा छे. जैन शासनमां त्रणे काळ आवी ज मुनिदशा होय छे. वस्त्रनी एक
लंगोट पण होय तो, त्यां आत्मज्ञान होई शके पण मुनिदशा होई शके नहीं. आत्मज्ञान पछी पण ज्यांसुधी आवी
मुनिदशा प्रगट न करे त्यां सुधी मोक्ष थतो नथी. अष्टपाहुडमां कहे छे के तीर्थंकरोने पण चारित्र विना मोक्ष थतो
नथी. तीर्थंकरने तो ए ज भवे मोक्ष जवानुं नककी थई गयेलुं छे, छतां तेओ पण ज्यारे चारित्रदशा प्रगट करीने
रत्नत्रयनी आराधना पूरी करे छे त्यारे ज मोक्ष पामे छे. केम के ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र त्रणेनी एकता ते मोक्षमार्ग छे, चारित्र वगर मोक्षमार्ग पूरो थतो नथी.
चारित्रमां चैतन्यना ध्याननी रमझट छे
धन्य ते चारित्र! कयुं चारित्र! लोको बहारनी क्रियामां चारित्र माने छे ते नहीं, पण अंतरमां
चैतन्यस्वभावना ध्याननी रमझट वडे घणी वीतरागता थई जाय ते चारित्र छे; आ चारित्रमां तो आनंदना
ऊभरा छे. त्यां चैतन्यमां लीनतानी उग्रताने लीधे देह प्रत्ये पण एटली बधी उदासीनवृत्ति थई गई छे के
वस्त्रादि वडे देह ढांकवानी वृत्ति ज ऊठती नथी. अंतर्मुख थईने ज्यां चैतन्य स्वभावनो परिग्रह कर्यो त्यां
बहारनो वस्त्रादिनो परिग्रह एकदम छूटी जाय छे ने अंदरथी रागनो परिग्रह पण छूटी जाय छे.–भगवाने तो
आवी मुनिदशा धारण करी हती. जैनशासनमां तो मुनिनी दशा आवी होय छे. ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ कहीने
लोकमां रहेला जे सर्व साधुओने नमस्कार कर्या छे ते बधाय आवी दशावाळा साधुओनी वात छे; ए सिवाय
आत्माना भान वगरना के परिग्रहना पोटलावाळा कोई ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ मां आवता नथी.
महान पुरुषोनो पंथ
आहा, अत्यारे तो मुनिदशानी ओळखाण पण जीवोने दुर्लभ थई पडी छे. धर्मीजीव ए मुनिदशानी
भावना भावे छे के–
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो....
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्षण छेदीने,
विचरशुं कव महत् पुरुषने पंथ जो....
जुओ, आ तीर्थंकरादि महान पुरुषोनो पंथ! पहेलांं आत्मभान करीने पछी चैतन्यना ध्यानवडे
चारित्रदशा प्रगट करीने वीतरागी आनंदना झूले झूलतां झूलतां ते महापुरुषो मुक्ति पाम्या...महापुरुषोना
आवा मुक्तिपंथमां हुं पण चारित्रदशा प्रगट करीने क्यारे विचरीश?–एम धर्मात्मा भावना भावे छे.
केवी चारित्रदशा? के–
सर्व भावथी औदासीन्य वृत्ति करी,
मात्र देह ते संयम हेतु होय जो;
अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहि,
देहे पण किंचित मूर्छा नव होय जो....
अदेही–सिद्धदशाने साधवा माटे ज्यां चैतन्यना अनुभवमां पड्यो त्यां देह उपर मूर्च्छा केवी? जेने वस्त्रादि
धारण करवानी वृत्ति उठे छे तेने तो देह उपर मूर्च्छा छे, एने मुनिदशा होती नथी. अहा, मोक्षनी साक्षात् साधक एवी
मुनिदशा तो सिंहमार्ग छे, एमां एवी कायरता नथी के देहनी रक्षा खातर के देहने ढांकवा खातर वस्त्रादि अंगीकार
करवानो भाव आवे! मुनिनी दशा अंतरमां तेमज बहार बंने रीते निर्ग्रंथ होय छे–एवो ज अनादिअनंत स्वभाव छे.
निष्प्रमाद अने अप्रतिबद्ध मुनिदशा
दिन–रात अंतरना ध्यानवडे चैतन्यनो कपाट खोलवानो उद्यम करी रहेला मुनिवरोने प्रमादनो अवकाश
क्यांथी होय? चैतन्यमां प्रतिबद्ध थयेला मुनिवरो बीजा कोई प्रतिबंधथी बंधाता नथी; चैतन्यना खीले बंधाई
गयेली तेमनी स्थिति परिणति बहारमां ज्यां त्यां भमती नथी एटले कोई प्रतिबंधमां अटकती नथी.
अनेक वार भोजन करे, के आखी रात ऊंघ्या करे, के दिवसना ऊंघे–ए तो प्रमाद अने विषयासक्ति छे;
मुनिओने एवो प्रमाद के विषयासक्ति होती नथी, तेओ मात्र एक ज वार (ऊभा ऊभा अने हाथमां ज)
भोजन करे छे, अने निद्रा पण मात्र पाछली राते अल्पकाळ ज करे छे. तेथी कहे छे के–
पंच विषयमां रागद्वेष विरहीतता,
पंच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो;