Atmadharma magazine - Ank 183
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 21 of 25

background image
: २० : आत्मधर्म : पोष : २४८५ :
–परम शांति दातारी–
अध्यात्मभावना
भगवानश्री पूज्यपादस्वामी रचित ‘समाधिशतक’ उपर परमपूज्य सद्गुरुदेव
श्री कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावना भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार
[वीर सं. २४८२ : जेठ वद पांचम]
जेने आनंदस्वरूप आत्मानुं भान नथी एवा अज्ञानीने पोताने तपश्चरण व्रतादिमां खेद लागे
छे, एटले ज्ञानी संतोने पण तपश्चरणमां खेद थतो हशे, एम ते माने छे; तेने एम शंका थाय छे के
मुक्तिने माटे घोर तप करनारा ज्ञानी–संतोने पण महादुःख थतुं हशे अने चित्तमां खेद थतो हशे, तेथी
तेने मुक्तिनी प्राप्ति केम थाय? ते शंकानुं समाधान करतां आचार्य पूज्यपादस्वामी कहे छे के–
आत्मदेहान्तरज्ञान जनिताह्लादनिर्वृत्तः।
तपसा दुष्कृतं घोरं भुंजानोऽपि न खिद्यते।।३४।।
अरे भाई! आत्मा अने देहना भेदज्ञानवडे, चैतन्यमां एकाग्र थयेला धर्मात्मा तो आनंदथी
आह्लादित छे, ते तो चैतन्यना आनंदमां झूले छे, अनाकुळ शांत रसना वेदनमां डुबकी मारीने लीन
थया छे; त्यां अनेक उपवासादि तपश्चरण सहेजे थई जाय छे, तेमां तेमने खेद थतो नथी पण चैतन्यना
आनंदनो विषयातीत आह्लाद आवे छे. अरे! चैतन्यना अनुभवमां दुःख केवुं? ऋषभदेव प्रभु छ
महिना सुधी ध्यानमां एवा लीन रह्या के चैतन्यना आनंदमां वच्चे आहारनी वृत्ति ज न ऊठी. त्यां
कांई तेमने दुःख न हतुं. त्यारपछी बीजा छ महिना पण तप कर्यो. लगभग एक वर्षना उपवास थया,
छतां परिणाममां जराय खेद न हतो; आत्माना आनंदमां घणी लीनता हती. आनंदमां लीनतावडे ज्ञानी
मुक्तिने साधे छे. मुक्तिने साधतां दुःख लागे तो तेणे मुक्तिना मार्गने जाण्यो ज नथी. मुक्ति तो
परमानंदनी प्राप्ति छे, ने तेनो उपाय पण आनंदमय छे, तेना उपायमां दुःख नथी. बहारमां गमे तेवी
घोर प्रतिकूळता आवी पडे तो पण आत्माना आनंदथी आनंदित संतोने जराय दुःख के खेद थतो नथी.
देहने अने संयोगोने पोताथी भिन्न जाणीने जेओ आत्मामां ज लीन थया छे तेमने दुःख केवुं? गमे
तेवा बाह्य संयोगो आवी पडो पण ज्यां बाह्य विषयो संबंधी चिंता ज नथी त्यां दुःख केवुं? चैतन्यनो
स्वभाव ज आनंद छे–
‘आनंदं ब्रह्मणो रूपं’ तेना चिंतनमां दुःख केम होय? अहो! ज्ञानीने तो
आत्मस्वरूपमां अंतर्लीनताथी अपूर्व आनंदनो अनुभव छे, पण संयोगद्रष्टिवाळा मूढ अज्ञानी जीवने
ज्ञानीना अंतरनी खबर नथी. प्रतिकूळ संयोगोथी ज्ञानीने दुःख थतुं हशे–एम ते मूढताथी माने छे. सिंह
आवीने ध्यानस्थ मुनिना शरीरने फाडी खातो होय त्यां जेने एम लागे के “अरेरे! आ मुनिने महादुःख
थतुं हशे”–तो ते जीव मोटो मूढ छे. अरे मूढ! संतो तो अंतरनी चैतन्यस्वरूपनी लीनताथी महा–