Atmadharma magazine - Ank 183
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 22 of 25

background image
: पोष : २४८५ : आत्मधर्म : २१ :
सुखी छे. महाआनंदी छे, शरीरने सिंह फाडी खाय तेमां शुं थयुं? शरीरथी आत्माने भिन्न जाणीने संतो तो
चैतन्यमां लीन थईने आनंदने ज अनुभवे छे. साधक संतो उपर उपसर्ग आवे त्यां ते दूर करवानी वृत्तिनो
भाव धर्मी भक्तोने आव्या विना रहे नहि, परंतु त्यां सामा संतोने दुःखी मानीने ते भाव नथी आवतो, पण
पोताना रागने लीधे–भक्तिभावने लीधे तेवी वृत्ति आवे छे. जेने संयोग तरफ झूकाव थईने राग–द्वेष थाय छे
तेने ज दुःख थाय छे; पण जेने संयोग तरफ झूकाव नथी ने स्वभाव तरफ ज झूकाव छे एवा संतोने रागद्वेष
थता नथी, अने तेथी गमे तेवा संयोगथी पण तेमने दुःख थतुं नथी, आनंदनो ज अनुभव छे; ने ए रीते
चैतन्यना आनंदमां लीन थईने ते मुक्तिने साधे छे.
शरीरने आत्मा मान्यो त्यां शरीर उपरना ममत्वने लीधे ज अज्ञानी दुःखी खेदखिन्न थाय छे. पण ज्यां
देहथी आत्माने जुदो जाण्यो, देहनुं ममत्व ज छूटी गयुं ने चैतन्यमां लीनता थई त्यां धर्मीने आनंदनी ज
अत्रूटधारा वहे छे, तेमां तेने खेद के दुःख थतुं नथी. भेदज्ञानपूर्वकनी आवी तपस्या ते मोक्षनुं कारण छे.
आत्मा अने शरीरनुं भेदज्ञान करीने ज्यां आत्मामां एकाग्र थयो त्यां समस्त बाह्यविषयोनी चिंता
छुटी जाय छे ने पोताना परम अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे. बहारना गमे तेवा संयोगमां पण तेनो
आनंद अबाधित रहे छे; बाह्यसंयोगनी प्रतिकूळताथी के व्रत–तपथी तेने खेद थतो नथी.
।। ३४।।
[वीर सं. २४८२ : जेठ वद ६]
(समाधिशतक गा. ३५)
ज्यां सुधी बाह्य पदार्थोमां आ मने ईष्ट अने आ मने अनीष्ट एवी राग–द्वेषनी बुद्धिरूप कल्लोलोथी
जीव चंचळ छे त्यां सुधी चैतन्यना आनंदनो अनुभव थतो नथी. जेनुं चित्त समस्त बाह्य पदार्थोथी भिन्न
पोताना ज्ञानानंदस्वरूप आत्मामां वळ्‌युं छे ते जीव राग–द्वेषादि कल्लोलोथी रहित स्थिर छे, ने एवा स्थिर
चित्तवाळो जीव ज परम आनंदमय आत्म–तत्त्वने देखे छे, बीजा देखी शकता नथी–एम हवे कहे छे–
रागद्वेषादि कल्लोलैरलोलं यन्मनाजलम्।
स् पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत् तत्त्वं नेतरो जनः।।३५।।
जेनुं ज्ञानरूपी जळ रागद्वेषादि कल्लोलोथी अविक्षिप्त छे ते आत्मतत्त्वने देखे छे, बीजा जनो तेने देखता
नथी. जेम मेला के तरंगवाळा पाणीमां रहेली वस्तु देखाती नथी, तेम जेनुं ज्ञानजळ मिथ्यात्वरूपी मेलथी के
राग–द्वेषरूपी कल्लोलोथी विक्षिप्त छे–चंचळ छे तेना ज्ञानमां आनंदमय आत्मानो अनुभव थतो नथी.
आत्मतत्त्व रागद्वेषादि कल्लोलोवडे वेदनमां आवतुं नथी. आत्मानी आराधनामां जेने कष्ट लागे
तेणे आत्माने देख्यो ज नथी. परमानंदस्वरूप आत्मानी आराधनामां कष्ट केम होय? बाह्य पदार्थोमां ईष्ट–
अनीष्ट संकल्पोना तरंगथी जे डामाडोळ वर्ते छे तेने आत्माना आनंदमां लीनता थती नथी. चैतन्य सरोवरनुं
जळ रागद्वेषना तरंगोथी डोली रह्युं छे त्यां समाधि थती नथी. राग–द्वेषथी भरेलो मनरूपी घडो फूटया वगर
मन आत्मामां ठरतुं नथी. जेम तरंगथी ऊछळता पाणीमां अंदर ऊंडे रहेली वस्तु देखाती नथी तेम जेनुं
ज्ञानजळ राग–द्वेषरूपी तरंगोथी ऊछळी रह्युं छे तेने अंदर रहेला आत्मतत्त्वनुं दर्शन थतुं नथी. राग–द्वेष रहित
निर्विकल्प चित्तवडे आत्मदर्शन थाय छे. चिदानंद तत्त्वमां ऊंडे ऊतरतां राग–द्वेषादिना संकल्पो छूटी जाय छे–
मनरूपी घडो फूटी जाय छे.
प्रभो! आत्मदर्शन शुं छे तेनी पण तने खबर नथी तो शांति के समाधि थाय नहि. अंतरना चैतन्यनुं
निर्विकल्प वेदन न थाय त्यां सुधी तो सम्यग्दर्शन पण होतुं नथी. संकल्प–विकल्पोथी विमुख थईने चैतन्य
स्वभाव तरफ झूकीने निर्विकल्प वेदन कर्या वगर तो सम्यग्दर्शन पण नथी, सम्यग्दर्शन वगर मुनिदशा के व्रत–
तप होतां नथी, ने मुनिदशा वगर समाधि थती नथी. सम्यग्दर्शन थतां अमुक शांति ने समाधि तो थई छे, पण
हजी मुनिदशानी विशेष समाधि नथी. संकल्प–विकल्प रहित चैतन्यतत्त्वनो आनंद जेना वेदनमां नथी आव्यो
तेने दुःख अने खेदनां परिणाम थया विना रहेता नथी. निर्विकल्प मनवडे आत्मदर्शन थाय छे; अहीं ‘मन’
एटले ज्ञान समजवुं. ज्ञान ज्यां अंतर्मुख वळ्‌युं त्यां निर्विकल्प थयुं, ने आत्माना