Atmadharma magazine - Ank 183
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : पोष : २४८५ :
आनंदनुं वेदन थयुं. त्यां रागद्वेषादि तरंगोथी ते ज्ञान जळ डोलायमान थतुं नथी, तेमां राग–द्वेषना विक्षेपो
नथी, चैतन्यमां स्थिरता छे.
मिथ्यात्व ते सौथी मोटो विक्षेप छे, रागादिथी किंचित् पण लाभ थशे एवी मिथ्याबुद्धि ते आत्मदर्शनमां
मोटो विक्षेप छे, ते विक्षेपमां अटकेलुं ज्ञान अंतर्मुख थईने आत्माने देखी शकतुं नथी. अने, मिथ्यात्वनो नाश
करीने आत्मानुं सम्यग्ज्ञान प्रगट कर्या पछी पण ज्यां सुधी राग–द्वेषना कल्लोलोथी ज्ञानजळ चंचळ वर्ते छे
त्यां सुधी निर्विकल्प आनंदनुं वेदन थतुं नथी. ज्यारे ज्ञानउपयोग अंतरमां वळीने, रागद्वेष रहित
निर्विकल्पपणे स्थिर थाय छे त्यारे आत्मतत्त्व स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी अनुभवमां आवे छे; राग–द्वेषना विकल्पमां
जोडायेलुं ज्ञान स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी आत्माने अनुभवी शकतुं नथी.
अतीन्द्रिय आत्मस्वरूपनी सन्मुखतावडे रागद्वेषादि तरंगो शांत थई जाय छे. चैतन्य स्वभावनी
सन्मुखता वगर बीजा कोई उपायथी रागद्वेषना तरंगो शांत थता नथी. बहारनी अनुकूळताना लक्षे जे शांत
परिणाम लागे ते खरी शांति नथी. अंर्तस्वभावना लक्षे राग–द्वेषनो अभाव थतां ज खरी शांति होय छे.
अंतर्मुख उपयोग वखते निर्विकल्पदशामां परमात्मतत्त्व आनंद सहित स्फूरायमान थाय छे,–प्रगट अनुभवमां
आवे छे. जेम जेम आवो अनुभव वधतो जाय छे तेम तेम राग–द्वेष छूटता जाय छे ने वीतरागी समाधि थती
जाय छे, पछी बहारनी गमे तेवी प्रतिकूळता के अनुकूळताथी पण तेनुं चित्त चलायमान थतुं नथी,
स्वरूपलीनतामां एवो अचिंत्य आनंद छे के तेमांथी बहार आवता नथी.
।। ३५।।
.... आत्मा कदी छोडतो नथी
आत्मा देहथी ने विकारथी छूटो रहे छे पण
पोताना स्वभावरूप ज्ञानमात्र भावने ते कदी
छोडतो नथी. जेम साकर मेलने छोडे छे पण
मीठाशने नथी छोडती, जेम अग्नि धूमाडाने छोडे
छे पण उष्णताने नथी छोडतो, तेम चैतन्यमूर्ति
आत्मा रागादि विकारभावोने छोडे छे पण
पोताना ज्ञानभावने कदी छोडतो नथी. माटे
ज्ञानभाववडे तारा आत्माने लक्षमां लई
आत्मानी प्रसिद्धि कर.... आत्मानो अनुभव कर.
निजभावने छोडे नहि, परभाव कंई पण नव ग्रहे,
जाणे जुए जे सर्व ते हुं,–एम ज्ञानी चिंतवे.