: ४ : आत्मधर्म : पोष : २४८५ :
संतो आत्मप्राप्तिना आशीर्वाद आपे छे
हे जीवो! भेदज्ञानवडे स्वतत्त्वने पामीने आजे ज
तमे परम आनंदरूपे परिणमो.
[मुंबई नगरीमां पंचकल्याणक प्रतिष्ठामहोत्सव निमित्ते, तेमज दक्षिणना
बाहुबलि भगवान वगेरे तीर्थधामोनी ससंघ यात्रानिमित्ते पू. गुरुदेवे सोनगढथी पोष
सुद छठ्ठना रोज प्रस्थान कर्युं तेनी पहेलांंनुं (पोष सुद पांचमनुं) भावभीनुं प्रवचन.]
आत्मा कोण छे अने ते कई रीते पमाय?–ते बतावीने, हवे आ प्रवचनसार पूरुं करतां आचार्यदेव कहे
छे के हे जीवो! आवा ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने अंतर्मुख थईने आजे ज अनुभवो. हुं एक सुविशुद्ध
चैतन्यस्वभाव आत्मा छुं–एम आजे ज तमे अनुभवो.... चैतन्यना अनुभवथी आजे ज परम आनंदरूपे
परिणमो.
चैतन्यरूप स्वतत्त्वने चूकीने, बाह्य पदार्थो साथेनी मैत्रीथी जीवने अनादिथी संसारभ्रमण थई रह्युं छे.
ते संसारभ्रमणथी केम छूटवुं–ते बतावतां आचार्य भगवान कहे छे के तमारा चैतन्यतत्त्वने समस्त परद्रव्योथी
भिन्न जाणीने, एकला स्वद्रव्य साथे ज मैत्री करो....ने परद्रव्यनी मैत्री छोडो....तेनी साथेनी एकताबुद्धि छोडो....
तेनो आश्रय छोडो....स्वद्रव्यनो आश्रय करीने आजे ज परमानंदरूपे परिणमो....
आह्लादपूर्वक आचार्यदेव कहे छे के : अमे तो चैतन्यना परम आनंदने प्राप्त कर्यो छे....ने जगत पण
आजे ज चैतन्यने अनुभवीने परमानंदरूपे परिणमो....
शास्त्र पूरुं करतां आचार्यप्रभु आशीर्वाद आपे छे: –कोने? जगतमां जे कोई जीव आ वात झीले तेने!
जगतना आत्मार्थी जीवोने आचार्यदेवना आशीर्वाद छे के हे जीवो! तमे तमारा परमानंदने पामो. अमे जे
उपाय कह्यो ते उपायथी तमे जरूर परमानंदने पामशो ज.
कलशद्वारा आचार्यदेव कहे छे के आनंदथी उल्लसता एवा आ स्वतत्त्वने जिनशासनना वशे
पामो....चैतन्यतत्त्व केळवज्ञानरूपी सरितामां डूबेलुं छे, ने आनंदना पूरथी ते केवळज्ञान सरिता भरेली छे;
एटले के चैतन्यतत्त्व परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदथी भरेलुं छे....तेने अंतर्मुख थईने हे जीवो! तमे आजे ज
पामो....भगवान सर्वज्ञदेवना मार्गनी आराधना करवाथी ज्ञानानंदस्वरूप उल्लसता स्वतत्त्वनी प्राप्ति थाय
छे....हे जीवो....आ शास्त्रद्वारा ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणीने, एक आखा शाश्वत स्वतत्त्वने प्राप्त करीने
‘आजे’ अव्याकुळपणे नाचो. ....आजे ज परम आनंदरूपे परिणमो. स्व–परनी एकताबुद्धि करीने मोहथी न
नाचो.... परंतु स्व–परनुं भेदज्ञान करीने आनंदथी नाचो.... आनंदरूपे परिणमो....
हवे छेल्ला कलशमां आचार्यदेव प्रमोदथी कहे छे के.... अहो! चैतन्यतत्त्वनुं स्वरूप अने तेनी प्राप्तिनो
उपाय अमे अमंदपणे–जोरथी–स्पष्टपणे कह्युं छे.... परंतु चैतन्यनो कोई परम अचिंत्य महिमा एवो छे के तेनी
पासे तो आ बधुं कथन “स्वाहा....” थई जाय छे....ए चैतन्यतत्त्व वचन अने विकल्पथी अगोचर,
स्वानुभवगम्य छे. आवा परम महिमावंत चैतन्यतत्त्वने चैतन्यवडे ज (–राग–वडे के वचनवडे नहि पण
चैतन्यवडे ज) आजे ज अनुभवो....‘पछी करशु’ एम विलंब न करो, पण आजे ज अनुभवो. लोकमां आ
चैतन्यतत्त्व ज परम उत्तम छे, आ लोकमां बीजुं कांई ज उत्तम नथी; माटे आवा स्वतत्त्वने उग्रपणे आजे ज
अनुभवो....
स्वतत्त्व प्राप्ति पंथदर्शक संतोने नमस्कार हो!