भूलीने, ईन्द्रियाधीन पोतानुं ज्ञान ने सुख माने छे त्यारे जीव पराधीन
थईने अज्ञान अने दुःखरूपे परिणमे छे; तेथी पराधीन एवुं ते ईन्द्रियज्ञान
अने ईन्द्रियसुख हेय छे, निंदनीय छे. अने ज्ञानस्वभावमां अंतर्मुख थईने
ज्यारे अतीन्द्रियज्ञानरूपे परिणमे छे त्यारे अतीन्द्रिय–स्वाधीन आनंद
प्रगटे छे, तेथी स्वाधीन एवुं ते अतीन्द्रियज्ञान अने अतीन्द्रियसुख
खरेखर उपादेय छे, प्रशंसनीय छे.
विषयभूत बाह्यपदार्थोमां तो तारुं सुख क्यांंथी होय? बाह्य पदार्थोमां
जोडातुं ज्ञान तो आकुळ–व्याकुळ दुःखनुं ज साधन छे, माटे बाह्यविषयोमांथी
सुख मेळववाना झांवा छोडी दे....ने उपयोगने अंतर्मुख करीने
निजस्वरूपमां जोड, तो तने तारा स्वभावना अतीन्द्रियसुखनुं संवेदन थशे.
आ रीते निजस्वरूपमां जोडेलो अतीन्द्रिय उपयोग ते ज सुख छे.
ईन्द्रियाधीन थईने बाह्यविषयोमां भटकतो उपयोग ते आकुळतामय
दुःखनो उत्पादक छे.
रसनाईन्द्रियने आधीन थयेल ज्ञान जडना स्थूळ रसने मांड मांड जाणी शके
छे, पण चैतन्यना आनंदरसनो स्वाद केवो छे तेने जाणवानी ताकात
तेनामां नथी; ए ज रीते स्पर्शेन्द्रियने आधीन थयेल ज्ञान बहु तो जड
पदार्थोना मूर्तस्पर्शने जाणे छे पण अतीन्द्रिय आत्माने स्पर्शवानी–
अनुभववानी तेनामां ताकात नथी. आवुं बाह्य मूर्तविषयोमां ज भटकतुं
पराधीन ईन्द्रियज्ञान आत्माना अतीन्द्रियसुखनुं साधन केम बनी शके? न
ज बनी शके; आ रीते आत्माना सुखनुं साधन नहि थतुं होवाथी पराधीन
एवुं ईन्द्रियज्ञान ते खरेखर ज्ञान नथी पण अज्ञान छे, निंदनीय छे, हलकी
कोटीनुं छे, तेथी ते हेय छे. अने आत्माना अंर्तस्वभावमां वळीने
स्वाधीनपणे वर्ततुं अतीन्द्रियज्ञान ते ज परम सुखना साधनभूत होवाथी
खरेखर ज्ञान छे, ते ज प्रशंसनीय छे, उत्तम छे, अने उपादेय छे.