Atmadharma magazine - Ank 183
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : पोष : २४८५ :
पहेलांं समज के,
हुं स्वयं ज्ञान ने सुख स्वरूपी छुं.
मूर्त ईन्द्रियो जड छे ते माराथी भिन्न छे;
ते ईन्द्रियोमां मारुं ज्ञान के सुख नथी.
आम समजीने,
ईन्द्रियो अने ईन्द्रियविषयो तरफनी रुचि छोड,
ने अतीन्द्रिय ज्ञानस्वभावमां रुचि जोड;
आ ज अतीन्द्रियसुखनो उपाय छे.

भाई! एक वार आ वात लक्षमां तो ले. तुं विचार तो कर के : “मारुं सुख तो
मारा आत्मामां छे, कांई बहार नथी; तो, उपयोगने अंतर्मुख करीने मारा आत्मामां
जोडवाथी मने सुख थाय, के मारा उपयोगने बहिर्मुख करीने बाह्यविषयोमां जोडवाथी
सुख थाय? ज्यां सुख न होय त्यां उपयोगने जोडवाथी सुख केम थाय? न ज थाय.
ज्यां सुखस्वभाव छे तेमां उपयोगने जोडवाथी ते सुखनुं वेदन थाय; एटले मारा
स्वरूपमां उपयोगने जोडवाथी ज मने मारा अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे.”–
आम विचारीने, बराबर निर्णय करीने, अंतर्मुख थाय; अंतर्मुख उपयोगमां तने
अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन थशे.
आ रीते–
‘निज स्वरूपनो उपयोग ते सुख छे. ’
पू. गुरुदेव पोताना हस्ताक्षरमां ए ज सन्देश आपे छे–
्रवचनसार–सुखअधिकार उपरना प्रवचनमांथी.