Atmadharma magazine - Ank 184
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः ८ः आत्मधर्मः १८४
आ समयसारशास्त्र वंचाय छे. ‘समय’ एटले आत्मा, तेमां ‘सार’ ते शुद्धआत्मा छे, एटले के
शुद्धआत्मा ते ‘समयसार’ छे ने तेने बतावनारुं आ शास्त्र ‘समयसार’ छे. समयसार एटले आत्मानो
शुद्धस्वभाव शुं छे तेने जाण्या विना, अज्ञानभावे जीव अनादिथी संसारमां रखडी रह्यो छे; ते परिभ्रमण केम
टळे तेनी आ वात छे.
क्षणिक रागादिभावो होवां छतां चैतन्यस्वभाव ते रागमय थई गयो नथी. रागथी पार चैतन्यतत्त्वनी
द्रष्टि वगर एकलो क्षणिक राग ते ज हुं एम अज्ञानी जीव पोताने रागमय ज अनुभवे छे. आचार्यदेव तेने
समजावे छे के अरे भाई! तारो आत्मा रागथी जुदा स्वभाववाळो छे. जेम सेवाळ पाणीथी भिन्न छे, सेवाळ
तो मलिन छे ने पाणी पवित्र छे, ते बंने एक नथी पण पृथक छे; तेम रागादिभावो तारा चैतन्यस्वभावथी
भिन्न छे, रागादि तो मलिन छे ने चैतन्यस्वभाव तो पवित्र छे, ते बंने एकमेक नथी पण जुदा छे. माटे तारा
आत्माने रागथी भिन्न जाण. आत्मा अने रागादिनुं भेदज्ञान करवाथी ज संसार अटकशे ने मुक्ति थशे.
त्यारे शिष्य पूछे छे के प्रभो! ए रीते भेदज्ञानथी ज संसार कई रीते अटकी जाय छे? रागादि भावो
दुःखदायक छे ने तेनो विरोध करवा जेवो छे, ते रागथी पार चैतन्यनो अनुभव कर्ये ज मारो भवभ्रमणथी
छूटकारो थाय तेम छे–एम लक्षमां लईने, कोई पण रीते सम्यग्दर्शनवडे शुद्धआत्मानो अनुभव करवानी जेने
धगश अने झंखना जागी छे एवो जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के प्रभो! आत्मा अने रागादिने भिन्न जाणवाथी ज
संसार अटकी जाय छे ते कई रीत?
एवा शिष्यने उत्तर आपतां आचार्य भगवान कहे छे के–
अशुचिपणुं विपरीतता ए आस्रवोना जाणीने,
वळी जाणीने दुःख कारणो, एथी निवर्तन जीव करे. ७२
आत्मानो स्वभाव तो जागृत चैतन्यरूप छे, ते तो पवित्र छे; अने आस्रवो एटले के शुभाशुभवृत्तिओ
तेनाथी विपरीत अपवित्र छे; वळी चैतन्यस्वभावमां वळतां तो शांत अनाकुळ सुखनुं वेदन थाय छे ने
रागादिमां तो आकूळतारूप दुःखनुं वेदन छे–आम यथार्थपणे जे जीव जाणे छे ते, आस्रवोने अपवित्र, विपरीत
अने दुःखरूप जाणीने तेनाथी पाछो वळे छे एटले के तेमां एकताबुद्धि छोडे छे, ने चैतन्यस्वभावने पवित्र–
सुखरूप जाणीने तेमां अंतर्मुख थाय छे–तेमां एकतारूपे परिणमे छे. आ रीते भेदज्ञान वडे आस्रवोथी निवृत्त
थाय छे त्यारे तेनो संसार अटकी जाय छे ने मुक्ति थाय छे.
जुओ, आ भेदज्ञान! जेनाथी संसार अटके ने मुक्ति थाय. एक सेकंडनुं भेदज्ञान अनंत संसारनो नाश
करीने अल्पकाळमां मुक्ति आपे छे. अहा! भेदज्ञाननो महिमा जीवने अनादिथी भास्यो नथी, ने बहारनी क्रिया
के बहारना शुभाशुभभावोनो महिमा मान्यो छे; जेनो महिमा माने तेनाथी पाछो केम वळे? अने चैतन्यनो
महिमा जाण्या वगर तेमां अंतर्मुख केम थाय? अहो, हुं तो ज्ञायक छुं, मारो आत्मा ज मारा सुखनुं कारण छे–
एम निर्णय करीने अंतर्मुख थवुं ते ज बंधनथी छूटकारानो उपाय छे. अरे जीवो! एकवार आवो निर्णय तो कर
के मारा आत्मामां अंतर्मुख थवुं ते ज मने सुखनुं कारण छे ने बर्हिर्मुख वृत्ति ते मने दुःखनुं कारण छे; संयोगो
मने सुख–दुःखनुं कारण नथी पण संयोग तरफना बहिर्मुख भावो छोडीने ज्ञायकस्वभावमां अंतर्मुख थवा जेवुं
छे.–आवो यथार्थ निर्णय पण पूर्वे कदी कर्यो नथी अंतरना अपूर्व प्रयत्नथी जो आवो निर्णय करे तो ते
निर्णयना बळे अंतरमां वळ्‌या वगर रहे नहि. प्रथम जीवने एम धगश जागवी जोईए ने आत्मानी धून
लागवी जोईए के मारा आत्मानुं सम्यग्दर्शन कर्या वगर आ जन्ममरणथी छूटकारो थाय तेम नथी, माटे
सर्व उद्यमथी सम्यग्दर्शन करवा जेवुं छे.–एम अंदर आत्माना सम्यग्दर्शननी खरी झंखना जागे तो
अंतरमां तेनो मार्ग शोधे. ते जीव बहारना संयोगमां के विकल्पोमां सुखबुद्धि करे नहि एटले तेमां
आत्माने बांधी घे नहि; पण तेनाथी छूटो ने छूटो रहीने ज्ञानानंद स्वभाव तरफ वारंवार वळ्‌या करे.
आवां अंर्तप्रयत्न वगर आत्मानो अनुभव थाय नहि ने आत्माना अनुभव वगर भवभ्रमणथी छूटकारो;
थाय नहि.