Atmadharma magazine - Ank 184
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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महाः २४८पः ९ः
अंतर्मुख लक्ष करे तो ख्यालमां आवे के आ रागादिनी लागणीओमां शांति नथी पण आकुळता
छे, ने चैतन्यस्वभाव शांत–अनाकुळ स्वादथी भरेलो छे, ते स्वभावमां वळतां शांत अनाकुळ स्वादनुं
वेदन थाय छे.–आम पोताने स्वादना भेदथी आत्मा अने रागनी भिन्नतानो निर्णय थाय छे. अने ज्यां
बंनेना स्वादने भिन्न जाण्यो त्यां रागना स्वादमां ज्ञान रोकातुं नथी पण अंतर्मुख थईने चैतन्यना
अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ल्ये छे. आ रीते अंतर्मुख भेदज्ञान वडे ज आत्मा आस्रवोथी निवृत्त थई
जाय छे. आस्रवोना स्वादने पोताथी विपरीत जाण्यो, पछी ज्ञान तेमां केम अटके? न ज अटके एटले के
तेनाथी पाछुं वळी जाय छे–पृथक् थई जाय छे; ने चैतन्यना आनंदस्वभावने पोतानो जाणीने ज्ञान ते
तरफ वळे छे एटले के तेमां एकाग्र थाय छे.–आ रीते भेदज्ञान थतां ज आत्मा संसारथी निवृत्त थाय छे
ने मोक्ष तरफ परिणमतो जाय छे. आवुं भेदज्ञान ते धर्म छे.
सम्यग्ज्ञान वडे आत्मा अने आस्रव वच्चे विवेक थतां ज जीवने विकारबुद्धि छूटी जाय छे एटले के
विकारथी लाभ एवी बुद्धि तेने रहेती नथी. जेम अंधारामां कोई पुरुषने अजाणी स्त्री प्रत्ये विकार भाव थाय,
पण ज्यां प्रकाशमां खबर पडी के अरे, आ तो मारी माता! ! त्यां तरत ज तेनी विकारवृत्ति छूटी जाय छे, ने
माता प्रत्ये आदरबुद्धि थाय छे. जुओ, ज्ञान थतां ज विकारबुद्धि छूटी गई, तेमां बीजुं कांई करवुं न पडयुं. तेम
चिदानंद स्वभावने भूलीने अज्ञानथी अंध थयेलो जीव अनादिथी रागादि वृत्तिने सुखरूप जाणीने तेनी रुचि
करे छे–तेनो ज स्वाद ल्ये छे पण चिदानंदतत्त्वनी सन्मुख द्रष्टि करतो नथी. ज्यां सत्समागमे लक्ष थयुं के अरे,
आ विकार तो मने दुःखरूप छे–मलिन छे ने मारो चैतन्यस्वभाव तेनाथी पृथक् छे–पवित्र छे ने तेज मने
सुखरूप छे.–आवुं लक्ष थतां ज अंतरस्वभाव प्रत्ये आदरभाव थयो ने विकारनो आदर छूटी गयो, विकारीबुद्धि
छूटी गई. चैतन्यस्वभाव तरफ रुचि ढळी गई त्यां हवे विकारीभावो प्रत्ये स्वप्नेय प्रीति न रही. आ रीते
सम्यग्ज्ञानरूप प्रकाशवडे आत्मा आस्रवोथी पाछो फरी जाय छे.–आ ज धर्मनो उपाय छे. आवा सम्यग्ज्ञान
वगर बीजुं बधुं अनंतवार जीव करी चूक्यो, पण मुक्तिनो मार्ग तेने हाथ न आव्यो. आचार्य भगवान कहे छे
के प्रभो! तारी मुक्तिनो मार्ग तारा आत्मामांथी शरू थाय छे; बहारथी तारी मुक्तिनो मार्ग मळे तेम नथी;
माटे अंतरस्वभावने लक्षमां लईने तेना सन्मुख था. मुक्तिनो मार्ग अंतर्मुख छे; “अंतर्मुख
अवलोकतां......विलय थतां नहि वार” बहिर्मुख मोहभावे संसार छे. अंतरस्वभावमां अवलोकन करतां
अनादिनो संसार क्षणमात्रमां विलय थई जाय छे.
आत्मामां परिपूर्ण ज्ञान–आनंदनी शक्ति छे. एम जाणी, श्रद्धा करी, तेमां लीन थईने जेमणे पोतानी
पूर्ण ज्ञानानंद शक्ति व्यक्त करी एवा जिनदेव सर्वज्ञपरमात्मा कहे छे के दरेक आत्मामां आवी परिपूर्ण शक्ति
विद्यमान छे, तेनुं अंर्त–अवलंबन करतां सदोषता टळीने निर्दोषता प्रगटे छे. सदोषता एटले के राग–द्वेष–
अज्ञानपणुं ते कायमी चीज नथी पण कायमीगुणोनी ते क्षणिक विकृति छे अने ते विकृति टळीने, कायमी गुणना
आधारे निर्दोष दशा प्रगटे छे. पण अज्ञानी जीव क्षणिक विकृति जेटलो ज पोताने मानीने तेनो ज अनुभव करी
रह्यो छे, ने क्षणिक विकृतिनी पाछळ आखो अविकारी गुण पडयो छे तेने भूली रह्यो छे, तेथी तेने पोताना
गुणनी अविकारी शांतिनुं वेदन थतुं नथी. शुद्ध स्वभावनी सन्मुख थईने आत्मानो अनुभव करतां शुद्धता
प्रगटे छे, तेमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे, तेने धर्म कहे छे. धर्मनी रीत तो आ छे, बीजी रीते धर्म
करवा मांगे ते कदी थाय तेम नथी. धर्मनी रीत शुं छे ते पण जीवोना ख्यालमां आवती नथी तो धर्म करे क्यांथी? धर्मनी वास्तविक रीतने जाण्या वगर अनादिथी बाह्यद्रष्टिथी बीजी रीते (जडनी क्रियामां ने पुण्यमां)
धर्ममानी लीधो छे पण तेथी जीवना भवभ्रमणनो अंत आव्यो नथी. भाई, तारो धर्म तो तारी
चैतन्यशक्तिमांथी आवे, के रागमांथी आवे? रागमांथी धर्म आवे एम कदी बनतुं नथी. राग करतां करतां धर्म
थई जाय एम नथी. धर्म तो चैतन्यस्वभावना आधारे छे. रागना आधारे तो बंधन थाय छे. तो बंधनभावनुं
सेवन करतां करतां मोक्षनो मार्ग थई जाय–एम केम बने?–कदी न ज बने. माटे जेने बंधननी–रागनी रुचि छे
तेने आत्माना अबंध स्वभावनी रुचि नथी पण अरुचि छे एटले के आत्मा प्रत्ये क्रोध छे. ते क्रोधमां आत्मा
नथी एटले के जेने