Atmadharma magazine - Ank 184
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः १८४
चैतन्यनी अरुचि छे तेने आत्मानुं ज्ञान नथी. जेना ज्ञानमां रागनी रुचि छे तेना ज्ञानमां चैतन्यनी
नास्ति छे, केम के रागथी भिन्न चैतन्यनुं अस्तित्व तेना ज्ञानमां भास्युं नथी. अहीं ज्ञानीओ–संतो
पोताना अनुभवपूर्वक चैतन्य अने रागनी भिन्नता समजावे छे. अरे जीव! रागथी भिन्न
चिदानंदतत्त्वना अनुभवनी आ वात सांभळतां अंदर तेनो उत्साह अने प्रेम लावीने हकार लाव–
चैतन्यनो उत्साह प्रगट करीने तेनी वातनुं श्रवण पण जीवे कदी नथी कर्युं. ए वात संभळावनारा तो
अनंतवार मळ्‌या परंतु जीवे अंदरमां चैतन्यना उत्साहपूर्वक कदी श्रवण नथी कर्युं. पण रागना
उत्साहपूर्वक ज सांभळ्‌युं छे. जो रागनो उत्साह छोडीने चैतन्यना उत्साहपूर्वक एकवार पण तेनुं श्रवण
करे तो अल्पकाळमां स्वभावनो अनुभव प्रगटीने भवनो अंत आव्या वगर रहे नहीं.
ज्यां पोताना चिदानंदस्वभावनो महिमा आव्यो त्यां रागादि विकारनो महिमा छूटी जाय छे
छे.