महाः २४८पः पः
सर्वज्ञदेवे कहेलुं जे कांई द्रव्यश्रुत छे तेनो सार शुं? के शुद्धआत्माने भावश्रुतज्ञानथी अनुभववो ते ज सर्व
द्रव्यश्रुतनो सार छे; एटले जेणे शुद्धआत्मानो अनुभव कर्यो तेणे जिनशासननुं सर्व द्रव्यश्रुत जाण्युं, अने जेणे
भावश्रुतथी पोताना शुद्ध आत्माने न जाण्यो तेणे जिनशासननुं द्रव्यश्रुत पणखरेखर जाण्युं नथी. अनंतवार
शास्त्रो भण्यो, महाव्रत धारण करीने द्रव्यलिंगी पणअनंतवार थयो, परंतु श्रुतज्ञाननो अंतर्मुख करीने आत्माने
न जाण्यो–तेथी तेनुं हित न थयुं, तेणे खरेखर जैन शासनने जाण्युं नथी.
निश्चय स्वभावना अनुभव वगर एकला व्यवहारने जाणवामां रोकाय तो तेने जैनशासननो पत्तो
लागतो नथी. अबंध स्वभावी आत्मानो पोताने अनुभव थई शके छे ने पोताने भावश्रुतना स्वसंवेदनथी
तेनो निःशंक निर्णय थाय छे. आत्मानुं सम्यग्ज्ञान एवुं आंधळुं नथी के पोताने पोतानी खबर न पडे.
सम्यग्ज्ञान थतां ज निःशंकपणे पोताने तेनी खबर पडे छे. जेने पोताना ज्ञानमां संदेह छे, अमने सम्यग्दर्शन
हशे के नहीं–एवी जेने शंका छे ते भले बाह्यमां त्यांगी होय तोपण ते साधु नथी, ते धर्मी नथी, ते व्रती श्रावक
नथी के ते पंडित नथी. हजी आत्मानुं ज्ञान थयुं छे के नहि–तेनी पण जेने शंका छे–ते जीवने एकेय धर्म नथी,
केमके जैनशासननो सार तो ए छे के पोताना शुद्ध आत्माने शुद्धनयद्वारा जाणवो. आवा आत्मज्ञान वगर
बीजुं गमे ते करे पण ते कोई साचो उपाय नथी. साचो उपाय जाण्या वगर अत्यार सुधी बीजुं बधुं अनंतवार
कर्युं, शुं शुं कर्युं? तो कहे छे के–
यम नियम संयम आप क्यिो
पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो;
वनवास रह्यो मुख मौन ग्रह्यो,
द्रढ आसन पद्म लगाय दियो.
सब शास्त्रनके नय धारि हिये,
मत मंडन खंडन भेद किये
वह साधन बार अनंत क्यिो
तदपि कछू हाथ हजु न पर्यो....
अब कयों न विचारता है मनमें
कछु और रहा उन साधनसें.....
बिन सद्गुरु कोई न भेद लहे
मुख आगळ है कह बात करे?
अरे जीव! विचार तो कर के आ बधुं अत्यारसुधी कर्युं छतां किंचित् सुख–शांति के धर्म तारा हाथमां न
आव्यो, आत्मानी निःशंकता तने हजी न थई, जैन शासन शुं छे ते हजी तुं न समज्यो, तो एमां वास्तविक कयुं
साधन बाकी रही गयुं? ए ज वात अहीं आचार्य भगवान बतावे छे के भावश्रुतने अंतरमां वाळीने तारा
शुद्ध आत्माने तुं जाण. केम के–
मुनि व्रतधार अनंत वार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिन सुख लेश न पायो.
माटे हे भाई, पहेले ज धडाके तुं ए जाण के सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान शुं चीज छे? ने कई रीते तेनी
प्राप्ति थाय छे! तारी आत्मानी शांति माटे के सम्यग्दर्शन माटे विकार बेकार छे..... अनंतवार शुभभाव तें कर्या
पण तेनाथी तने सम्यग्दर्शन न थयुं; केमके शुभराग ते कांई सम्यग्दर्शननो उपाय नथी; सम्यग्दर्शन नो उपाय
तो आ छे के परना संबंध वगरना पोताना एकरूप शुद्ध आत्माने भावश्रुतज्ञानवडे स्वानुभवमां लेवो. एकला
गुरुना शब्दोथी पण आवो स्वानुभव नथी थतो, परंतु पोताना भावश्रुतज्ञानने अंतरमां स्वसन्मुख करवाथी
ज आत्मानो स्वानुभव थाय छे, ने आवो स्वानुभव करवो ते ज जिनशासन छे.
जेने स्वानुभव थाय तेने अंतरथी निःशंकता आवी जाय छे के हवे अमे जिनशासननुं हार्द जाणी लीधुं
छे, अमने आत्मानुं सम्यग् दर्शन थयुं छे. ते सम्यग्द्रष्टिना अंतरमां सर्व आगमनुं रहस्य वर्ते छे. जिनशासन
ते वीतरागताने उपदेशे छे, ने वीतरागता ते स्वभावसन्मुखताथी ज थाय छे, एटले के ज्ञाननो स्वसन्मुख
झुकाव थतां वितरागता थाय छे, ते ज जैनशासन छे. अंतर्मुख भावश्रुतथी अपूर्व अतीन्द्रिय आनंदनो
अनुभव थाय छे; आवो अनुभव करनारी श्रुतज्ञान–पर्याय आत्मा साथे अभेद थयेली छे तेथी तेने ज आत्मा
कह्यो छे, अने तेने ज जिनशासन कह्युं छे. पहेलां आवी यथार्थ समजणनो प्रयत्न करवो जोईए.