Atmadharma magazine - Ank 185
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १८प
प्रतिष्ठामहोत्सव बाद बे दिवस पू. गुरुदेव घाटकोपर, शिव वगेरे पराओमां वसता मुमुक्षु– भक्तोने
त्यां पधार्या हता. एक दिवस माटुंगामां शेठ श्री केशवलालभाई पारेखने त्यां गुरुदेवनो आहार थतां, तेना
उल्लासमां केशवलालभाईए रूा. १००१) पू. बेनश्रीबेन हस्तकना आहारदानखातामां अर्पण कर्या हता; ए ज
रीते शिवमां भाईश्री चंपकलाल डगली (बरवाळावाळा) ने त्यां गुरुदेवनो आहार थतां तेमणे पण रूा.
प२प०) (सवापांच हजार) अर्पण कर्या हता. आम गुरुदेवना प्रतापे जिनशासननी महान प्रभावना वृद्धिगत
थई रही छे.....ते जयवंत वर्तो!
हे जिनवर! तुज चरणकमळना भ्रमर
श्री कहान प्रतापे
‘जिन’ पाम्यो, ‘निज’ पामुं अहो! मुज
काज पूरां सहु थाये...
आशा मुज करजो रे पुरी....
उभय अण हेतुक उपकारी.
पुरुषार्थीना पडकार
जेम कोई गरीब होय ने तेने मोटुं राज
मळवानो प्रसंग आवे, त्यां ते एम कहे के ‘अरे!
अमे तो गरीब, अमारामां राज लेवानी ने राजा
थवानी पात्रता क्यांथी होय?–तो ते पुण्यहीन छे.
अने जे पुण्यवान छे ते तो तरत ज स्वीकार करे छे के
अमे राजा थवाने पात्र छीए, अमारी ताकातथी अमे
राज चलावशुं. तेम अहीं गरीब एटले के अज्ञानी
जीवने तेनुं चैतन्यराज मळवानी वात आचार्यदेव
संभळावे छे के ‘अरे जीव! तारामां केवळज्ञाननुं
महान पद लेवानी ताकात छे, ज्ञान साम्राज्यने
मेळवीने तेने संभाळवानी तारी ताकात छे.’ त्यां जे
एम कहे के ‘अरे! अमे तो अज्ञानी, पापमां डुबेला;
अमारामां केवळज्ञान लेवानी ने परमात्मा थवानी
पात्रता क्यांथी होय?’ तो ते जीव पुरुषार्थहीन छे;
अने जे पुरुषार्थवान छे–आत्मानो उल्लासी छे–ते तो
ए वात सांभळता तरत ज स्वीकार करे छे के अहो!
अमारो आत्मा केवळज्ञान लेवाने पात्र छे,
केवळज्ञानसाम्राज्यने झीलवानी अमारी पर्यायमां
ताकात छे, अमारी ताकातथी अमे केवळज्ञान लेशुं–
आम आत्मशक्तिनो भरोसो करीने तेमां लीनतावडे
धर्मी जीव केवळज्ञानसाम्राज्य प्राप्त करे छे. बधाय
जीवोमां आवी ताकात छे, जे तेने स्वीकारे छे तेने
तेनुं परिणमन थाय छे–
“सर्व जीव छे सिद्धसम.....जे समजे ते थाय.”
(–संप्रदानशक्तिना प्रवचनमांथी)