Atmadharma magazine - Ank 185
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४८पः २१ः
शुद्ध आत्मानो आदर
(सोलापुर शहेरमां पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथीः फागण शुद १३)
समयसारनी शरूआतमां “नमः समयसाराय” कहीने आचार्यदेवे शुद्ध आत्मानो आदर करीने तेने
नमस्कार कर्या छे. पहेले ज घडाके मोक्षार्थीने शुद्ध आत्मानो आदर आववो जोईए. शुद्ध आत्मानो आदर करीने
तेनी प्रतीति ते ज सम्यग्दर्शन छे. जीवे पूर्वे अनंतकाळमां शुद्ध आत्मानो आदर के प्रतीति कदी करी नथी.
सम्यग्दर्शन शुं चीज छे ने तेनी कई रीत छे ते वात पण यथार्थ पात्रतापूर्वक कदी सांभळी नथी. ते वात अहीं
आचार्यदेव समजावे छे.
जेने नमस्कार कर्या–जेनो आदर कर्यो ते शुद्धआत्मा केवो छे?–चित्स्वभावी वस्तु छे; ‘भाव’ कहेतां ते
सत् वस्तु छे ने ‘चित्स्वभाव’ कहेतां चैतन्य तेनो गुण छे; अने पोताने पोतानी स्वानुभूतिथी ज प्रकाशे छे–
जाणे छे–अनुभवे छे, ते तेनी क्रिया छे. आ रीते शुद्ध आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेने ओळखीने तेने
नमस्कार कर्या छे.
जुओ भाई, चारे गतिना अवतार जीवे अनंतवार कर्या, तेमां देव अने नारकी, राजा अने रंक, कीडी
अने कुंजर अनंतवार थयो, पण शुद्ध आत्मानुं भान पूर्वे कदी एक क्षण पण नथी कर्युं, तेथी ते दुर्लभ छे.
संसारमां बधुं सुलभ छे, पण एक आत्मज्ञान ज दुर्लभ छे. बहारना मोटा मोटा वैभव जीवने अनंत वार पूर्वे
मळी गया, माटे तेने सुलभ कह्या छे. सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान ते पूर्वे कदी नहि मळेली अपूर्व चीज छे तेथी ते
दुर्लभ छे, छतां ते सम्यग्दर्शन आत्माना पोताना स्वभावने ज आधीन छे, एटले स्वाधीन होवाथी ते सुलभ
छे; अने परवस्तुनी प्राप्ति आत्माने आधीन नहि होवाथी, ने पराधीन होवाथी ते दुर्लभ छे. एक क्षण पण
अंतरमां शुद्ध आत्माने ओळखीने सम्यग्दर्शन प्रगट करे तो अंदरमां पोताना स्वानुभवथी खातरी थई जाय छे
के हवे अमारा जन्ममरणनो छेडो आवी गयो.....अंतरना स्वानुभवमां सिद्ध भगवान जेवा अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद आवी जाय छे.
अरे जीव! आत्माने भूलीने चारे गतिना अनंत अवतारमां अनादिकाळथी तुं रखडी रह्यो छे,
भगवान! शुं हजी तने थाक नथी लाग्यो! संसारभ्रमणथी जो तुं थाक्यो हो तुं थाक्यो हो ने चैतन्यनी
निर्विकल्प शांतिनुं वेदन करवा चाहतो हो तो तेनो उपाय आ छे के तारा शुद्ध आत्माने तुं जाण.
शुद्धआत्मा स्वानुभूतिथी ज प्रकाशमान थाय छे, स्वानुभूति ते संवर–निर्जरा छे, तेना वडे आत्मा
सर्वज्ञ थाय छे, पुण्य–पाप के आस्रवबंधवडे शुद्ध आत्मा प्रगट थतो नथी, माटे जे मोक्षार्थी होय तेओ
पहेलां शुद्ध आत्माने जाणीने तेनो आदर करो. पहेला ज कळशमां ‘समयसार’ कहीने शुद्ध जीवतत्त्व
बताव्युं, ‘स्वानुभूति’ कहीने संवर–निर्जरातत्त्वो बताव्या, अने ‘सर्वभावांतरच्छिदे’ कहीने
सर्वज्ञतारूप मोक्षतत्त्व बताव्युं; आस्रव–बंध के पुण्य–पापरूप हेयतत्त्वोने तेमां न लीधा, शुद्धआत्मामां
तेनो अभाव छे.
आ १७–१८ मी गाथामां आचार्यभगवान शुद्धआत्मानी प्राप्तिनो उपाय दर्शावे छेः हे मोक्षार्थी जीवो!
पहेले ज घडाके तमे शुद्ध आत्माने जाणो. पहेलां बीजो व्यवहार करतां करतां आत्मा जणाशे–एम नथी, एटले
के पहेलो व्यवहार ने पछी निश्चय–एम नथी. शुभरागरूप व्यवहार तो पराश्रित छे ने ते पुण्यबंधनुं कारण
छे,–एटले के ते बंधनुं ज कारण छे पण मोक्षनुं कारण नथी; अने जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे
ते तो आत्माश्रित छे, ते बंधनुं कारण नथी; मोक्षमार्ग तो वीतराग छे, ते मोक्षनुं ज कारण छे. मोक्षमार्गथी
पुण्य न बंधाय; जो मोक्षमार्गथी पण कर्मनुं बंधन थाय तो