तेनी प्रतीति ते ज सम्यग्दर्शन छे. जीवे पूर्वे अनंतकाळमां शुद्ध आत्मानो आदर के प्रतीति कदी करी नथी.
सम्यग्दर्शन शुं चीज छे ने तेनी कई रीत छे ते वात पण यथार्थ पात्रतापूर्वक कदी सांभळी नथी. ते वात अहीं
आचार्यदेव समजावे छे.
जाणे छे–अनुभवे छे, ते तेनी क्रिया छे. आ रीते शुद्ध आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेने ओळखीने तेने
नमस्कार कर्या छे.
संसारमां बधुं सुलभ छे, पण एक आत्मज्ञान ज दुर्लभ छे. बहारना मोटा मोटा वैभव जीवने अनंत वार पूर्वे
मळी गया, माटे तेने सुलभ कह्या छे. सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान ते पूर्वे कदी नहि मळेली अपूर्व चीज छे तेथी ते
दुर्लभ छे, छतां ते सम्यग्दर्शन आत्माना पोताना स्वभावने ज आधीन छे, एटले स्वाधीन होवाथी ते सुलभ
छे; अने परवस्तुनी प्राप्ति आत्माने आधीन नहि होवाथी, ने पराधीन होवाथी ते दुर्लभ छे. एक क्षण पण
अंतरमां शुद्ध आत्माने ओळखीने सम्यग्दर्शन प्रगट करे तो अंदरमां पोताना स्वानुभवथी खातरी थई जाय छे
के हवे अमारा जन्ममरणनो छेडो आवी गयो.....अंतरना स्वानुभवमां सिद्ध भगवान जेवा अतीन्द्रिय
आनंदनो स्वाद आवी जाय छे.
निर्विकल्प शांतिनुं वेदन करवा चाहतो हो तो तेनो उपाय आ छे के तारा शुद्ध आत्माने तुं जाण.
शुद्धआत्मा स्वानुभूतिथी ज प्रकाशमान थाय छे, स्वानुभूति ते संवर–निर्जरा छे, तेना वडे आत्मा
सर्वज्ञ थाय छे, पुण्य–पाप के आस्रवबंधवडे शुद्ध आत्मा प्रगट थतो नथी, माटे जे मोक्षार्थी होय तेओ
पहेलां शुद्ध आत्माने जाणीने तेनो आदर करो. पहेला ज कळशमां ‘समयसार’ कहीने शुद्ध जीवतत्त्व
बताव्युं, ‘स्वानुभूति’ कहीने संवर–निर्जरातत्त्वो बताव्या, अने ‘सर्वभावांतरच्छिदे’ कहीने
सर्वज्ञतारूप मोक्षतत्त्व बताव्युं; आस्रव–बंध के पुण्य–पापरूप हेयतत्त्वोने तेमां न लीधा, शुद्धआत्मामां
तेनो अभाव छे.
के पहेलो व्यवहार ने पछी निश्चय–एम नथी. शुभरागरूप व्यवहार तो पराश्रित छे ने ते पुण्यबंधनुं कारण
छे,–एटले के ते बंधनुं ज कारण छे पण मोक्षनुं कारण नथी; अने जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे
ते तो आत्माश्रित छे, ते बंधनुं कारण नथी; मोक्षमार्ग तो वीतराग छे, ते मोक्षनुं ज कारण छे. मोक्षमार्गथी
पुण्य न बंधाय; जो मोक्षमार्गथी पण कर्मनुं बंधन थाय तो