संयोग न मळे, तेना फळमां तो असंयोगी चैतन्य स्वभाव मळे. संयोगो कांई जीवने शरणरूप नथी थता,
स्वभाव ज शरणरूप थाय छे. मरणसमये करोडो रूा. नो ढगलो करीने तेने प्रार्थना करे के हे पैसा! तमे मने
मरवा टाणे शरण आपजो–तो शुं पैसानो ढगलो एने शरण आपशे? ना; ए तो जड छे; कोई पण बहारनो
संयोग जीवने शरणरूप थतो नथी; शरणरूप तो पोतानो स्वभाव ज छे. जो संयोगद्रष्टि छोडीने अंतरना
चिदानंद स्वभाव पासे जईने तेनी सेवा (श्रद्धा–ज्ञान–रमणता) करे तो ते शरणरूप थईने जीवने अतीन्द्रिय
शांति आपे छे.
वळीए छीए, शुद्ध आत्मामां ढळीने तेनो आदर करीए छीए, तेने ज नमीए छीए. जुओ, आ मोक्षार्थी जीवनुं
कर्तव्य! आ ज धर्मनी रीत छे, ने आ ज रीतथी मोक्षार्थी जीव मोक्ष पामे छे.
जे आत्मानुं हित साधवा मांगे छे एवा जीवने
पण जेने भूख न लागी होय तेने ते केम भावे?
खरेखरी भूख लागी होय तेने ते भावे. तेम
लागी नथी तेने तो, आत्माना आनंदनी आ
अपूर्व वात समजवामां पण रस नथी आवतो–
भवदुःखथी थाकी गयो छे, ‘अरेरे! आ आत्मा
हवे भवदुःखथी छूटीने चैतन्यनी शांति क्यारे
लागी छे–झंखना जागी छे–ते तो आत्माना
आनंदनी वातनुं अपूर्व रुचिथी श्रवण करीने
जरूर तेना भवना थाक ऊतरी जाय छे, जरूर
तेनी भूख भांगी जाय छे ने आत्मानी अपूर्व
लाग्यो होय ने आत्माना सुखनी भूख जागी होय
ते भूख्याने माटे आ सुखडी छे; आ सुखडीथी
सुखनी प्राप्ति थाय छे.