Atmadharma magazine - Ank 185
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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सम्यग्द्रष्टिने पोतानो
चैतन्यस्वभाव ज प्रिय छे.
हे जीव! तुं चैतन्यनी प्रीति कर
(कोल्हापुर शहेरमां पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी ता. २१–२–प९)
दरेक आत्मामां सर्वज्ञशक्ति छे, तेनो विश्वास करीने अंतर्मुख थतां आनंदनो अनुभव
थाय छे. पण आत्माना अनुभवनी वात यथार्थपणे जीवे कदी सांभळी नथी...सांभळवा मळी
त्यारे आत्मानी दरकार करीने सांभळ्‌युं नहि, तेथी तेणे खरेखर श्रवण कर्युं ज नथी. समयसारनी
चोथी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के–
श्र
त–परिचित –अनुभूत सर्वने
कामभोगबंधननी कथा,
परथी जुदा एकत्वनी
उपलब्धि केवळ सुलभ ना.
अरे जीव! चैतन्यने चूकीने, रागनी अने रागना फळनी रुचिथी तें तेनी ज वात
सांभळी, तेनो ज वारंवार परिचय कर्यो ने तेनो ज अनुभव कर्यो; परंतु रागथी पार
चिदानंदस्वरूप आत्मा छे तेनी प्रीति करीने कदी तेनुं श्रवण पण कर्युं नथी. परिचय पण कर्यो
नथी अने अनुभव पण कर्यो नथी. चैतन्यनी प्रीति अने पहचान वगर बीजुं अनंतवार कर्युं
पण तेनाथी कांई हित न थयुं.
मुनिव्रतधार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिन सुख लेश न पायो
हुं बीजा बधायने जाणुं छुं परंतु ‘मैं कौन हूं यह मै नहीं जानता’ ए केवी आश्चर्यनी
वात छे. अरे जीव! शुद्ध चैतन्यतत्त्वने जाण्या वगर कदी धर्म थतो नथी. जेम माटी वगर घडो
थतो नथी तेम शुद्ध चैतन्यना श्रद्धा–ज्ञान वगर कदी धर्म थतो नथी. वळी जेम बीजमांथी वृक्ष
थाय छे तेम धर्मरूपी वृक्षनुं बीज सम्यग्दर्शन छे. ते सम्यग्दर्शन केम थाय? के चैतन्यस्वभावनी
प्रीतिथी वारंवार तेनुं स्मरण घोलन करवुं ते सम्यग्दर्शननी रीत छे. जेने जेनी प्रीति होय ते
वारंवार तेनुं घोलन करे छे. जेने चैतन्यनी प्रीति छे ते पोताना श्रद्धाज्ञानने अंतरमां वाळीने
वारंवार तेनुं मनन करे छे.
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा कहे छे के आ जगतमां अमने प्रियमां प्रिय वस्तु कोई होय तो ते
अमारो चैतन्य स्वभाव ज छे, तेना सिवाय जगतमां बीजुं कांई अमने खरेखर प्रिय नथी. जेनुं
चिंतन करतां ज अपूर्व शांतिनुं वेदन थाय–अंतरमां शांतरसना मोजा उल्लसे एवो अमारो
चैतन्यस्वभाव ते ज अमने प्रिय छे. राग करतां करतां लाभ थशे एम अज्ञानी जीव माने छे,
तेथी ते अज्ञानीने राग प्रिय छे, पण राग वगरनो चैतन्यस्वभाव तेने प्रिय नथी. जे जेनाथी
लाभ माने ते तेनो प्रेम केम छोडे? अने रागनो पे्रम जे न छोडे ते संसारथी केम छूटे? माटे हे
जीवो! तमे जो संसारथी छूटवा चाहता हो तो संसारनो नाश करनारा एवा चैतन्यतत्त्वनो प्रेम
करीने तेनुं स्मरण करो चिंतन करो–अनुभव करो. आवुं चैतन्यनुं चिंतवन ते ज संसारसमुद्रथी
तारनारी नौका छे, अने ते ज भवतापथी संतप्त जीवोने शांति आपनार छे; माटे ते ज कर्तव्य छे.