Atmadharma magazine - Ank 186
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959).

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ચૈત્રઃ ૨૪૮પઃ ૧૧ઃ
।। श्रीजिनाय नमः।।
श्री कानजीस्वामी तथा उनके यात्रा संघ का शानदार
स्वागत
दक्षिण भारत में जैन धर्म, राजा, महाराजा तथा आम जनता के आश्रय
से ई पू. पहली शताब्दी से १२ वी शताब्दी तक उन्नत दशा में था। उस समय
आज जिस पुण्यक्षेत्र तिरुप्परुत्तिकुन्नम का दर्शन कर रहे हैं जिनकंची के
नाम से प्रसिद्ध था। यह दिगम्बर जैन धर्म के महान आचार्यप्रवर श्री कुंदकुंद,
समन्तभद्र, चन्द्रकीर्ति, वामनाचार्य, मल्लिषेणाचार्य, और पुष्पसेनाचार्य आदि
आचार्यों के तथा मठाधीशों का निवास्थान बना हुआ था। यहीं से धर्मप्रचार
तथा महान्ग्रंथों की रचना भी होती थी।
यहां यादगार के रूप में स्थित चार कमरे जो कि त्रैलोक्यनाथ स्वामी
के मन्दिर में है यह बताता है कि अन्तिम के चार आचार्य तपस्या कर यही से
मोक्ष गये है। यह सब से आश्चर्य की बात है कि यहां
कोरानामक एक पेड
है जो कि समीप काल तक सूखा हुआ था, आज फिर हराभरा हो गया है।
मानो यह आप के जैसे पुण्यवानों का शुभागमन का ही सूचक है।
इतिहास से यह विदित होता है कि यहां का श्री चन्द्रप्रभस्वामी मन्दिर
. पू. ८ वीं शताब्दी में और त्रैलोक्यनाथ स्वामी का मन्दिर १२ वीं शताब्दी में
बनवाया गया है। अलावा इसके यहां जो संगीत मण्डप है वह १४ वी शताब्दी
के विजयनगर साम्राज्य चक्रवर्ती के सेनापति और श्री पुष्पसेनाचार्य के शिष्य
इरुगप्पर नामक व्यक्ति से बनाया गया है। इस मण्डप के भगवान
ऋषमदेव की जीवनी के रंगीन चित्र अजन्ता चित्रों से कम नहीं है।
ऐसे स्वदेशी और विदेशी यात्रियों की आह्लाद एवं आश्चर्यप्रदान
करनेवाला यह मन्दिर दयनीय दशा में है। इसके लिये दिये गये कई गांव
मुगल शासन के पहले ही हाथ से चले गये अंग्रेजो के शासनकाल में इसके
लिये
अरकाड नवाब से दी गयो ३०० एकड भूमि कायम कर दी गयी।
लेकिन अफसोस की बात है मेरे पूर्व के ट्रस्टियों की उदासीनता के कारण
नष्ट–भष्ट होकर अब केवल ६ एकड भूमि ही बची है। यही कारण है यहां कई
धर्मकाय बन्द हो गये है।
इस दयनीय स्थिति में मद्रास सरकार सन १९६४ में देख देख का भार
अपने उपर लेकर २५–४–१९५५ से मुझे ट्रस्टी बनायी है। तब से ब्रह्मोत्सव के
सिवाय अन्य धर्मकार्यो को बडी मुश्किल से चलाता आ रहा हूंँ। इसकी
सालाना आमदनी केवल ५५४ रू
. है। इस से मरम्मत आदि काम तो दूर रहा
नित्यक्रिया के काम भी मुश्किल से चलते है। इसे कहने की आवश्यकता ही
नहीं होती।