Atmadharma magazine - Ank 186
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959).

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ચૈત્રઃ ૨૪૮પઃ ૧૩ઃ
की अनुभूति का है। आत्मानुभूति के उस पवित्र आदर्श से प्रेरित होकर
कोटि कोटि आत्माएं, आपसे प्रकाश एवं पथ–प्रदर्शन प्राप्त कर अपना
जीवन सफल कर रही हैं।
आपने सांसारिक वैभव की अतृप्त तृष्णाकि मृगमरीचिका को
जानकर इन्द्रियों का दमन कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुवे कठोर तपस्या
की है। अपनी तरुणाई का उपयोग आपने स्वाध्याय तप की सिद्धि में
लगाया तथा श्रीमद् कुंदकुंद स्वामी इत्यादि आचार्यों द्वारा प्रणीत अनुपम
ग्रंथरत्न समयसार, प्रवचनसार आदि महान ग्रंथो का अध्ययन कर
अंर्तद्रष्टि प्राप्त की है। आप पर अनेक उपसर्ग आये परंतु आपके द्रढ संकल्प
को उससे कोई आंच न आई तथा आप अग्रसर ही रहे। आपके साधना
स्थल सोनगढ में जिस वीतरागप्रणीत निर्गंथ मार्ग पर द्रढ श्रद्धा रख आप
रत्नत्रय की जो आराधना कर रहे हैं उससे सारे सौराष्ट्र में जैन धर्म की
अभूतपूर्व प्रभावना हुई है। आपके ही कारण सोनगढ आज तीर्थस्थल बन
गया है। आपके असीम साहस तथा एकनिष्ठ द्रढता से अनेकों को प्रेरणा
मिली तथा उन्होंने आपके इस क्रातिमें जीवनदान दिये है।
अध्यात्म योगिन्
मोह और ममता के पंकमे निमग्न मानवसमूह का हित बाह्य
जगत की चमकदमक से हटकर अंतर्मुखी बननेमें ही है। आपके
अतिशय प्रभावक आध्यात्मिक प्रवचनों द्वारा आप जिस कौशल से सरल
भाषा में चिर गूढ आत्मतत्त्व का शुद्ध स्वाभाविक चित्र श्रोताओं पर
प्रकट करते हैं उससे मानव को आत्मदर्शन की प्रेरणा मिलती है। जहां
जहां आपका प्रवचन होता है वहां अध्यात्मवाद का सूर्य प्रकट होता है
जिससे सारे विकल्पों के अंधकार का नाश होकर जनता में आत्मज्ञान
की पिपासा जागृत होती है। आपके प्रवचन जैन साहित्य की अनमोल
निधि है जो आत्मार्थी जनों के लिए सदैव मार्गदर्शक बने रहेगे। आपके
द्वारा की गई भारतीय संस्कृति एवं आत्मधर्म की महान सेवा भारत के
धार्मिक इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगी।
इस पावन प्रसंग पर उपस्थित हम मलकापूरवासी जन आपका
अंतःकरण से अभिनंदन करते हैं तथा अपने भावों की पुष्पांजलि इस
सम्मान पत्र के द्वारा समर्पित करते हैं। हम श्री १००८ जिनेश्वर भगवान
से प्रार्थना करते हैं कि आप चिरायुं हो एवं आपके आत्मज्ञान का शुभ
संदेश संसार के कोने कोने में सूर्यप्रकाश के भांति फैले यही हमारी
कामना है।
जिनशासन मंडप विनीत,
दिनांक ३०–३–५९ जैन समाज, मलकापुर
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(આ અભિનંદન પત્ર પં. રતનલાલજીએ વાંચ્યું હતું અને શ્રી
ચુનીલાલજી શેઠના હાથે અર્પણ કરવામાં આવ્યું હતું.)