ः ६ चः आत्मधर्मः १८९
उ....प....दे....श....अ....मृ....त
(१) भेदज्ञाननुं कार्य ए छे के चैतन्य स्वभावमां प्रवर्ते अने
विकारथी निवर्ते; जो विकारथी निवृत्त न थाय एटले के तेनाथी पाछो
वळीने स्वभाव तरफ न वळे तो ते जीवने स्वभाव अने विकारनुं भेदज्ञान
थयुं ज नथी.
(२) जीव पंडिताईथी शास्त्रो भण्यो परंतु स्वभाव अने विभाव
वच्चेनुं यथार्थ भेदज्ञान तेणे कदी क्षण पण प्रगट कर्युं नथी. भेदज्ञान थतां
तो आत्मानी परिणति विकारथी विमुख थईने स्वभावनी सन्मुख थई
जाय.
(३) अरे, आ तो जेने चारे गतिना भ्रमणना दुःखथी त्रास
लागतो होय ने आत्मा समजवानी गरज थई होय एवा जीवोने माटे
वात छे. जेने भवनो त्रास लाग्यो होय ने चैतन्यनी शांति माटे झंखना
जागी होय एवा आत्मार्थी जीवने समजाय एवी आ वात छे.
(४) हजी तो जेने पुण्यमां अने तेना फळमां सुख भासतुं होय,
जगतना बहारना कार्यो माराथी थाय छे. एवी बुद्धि पोषाती होय, ते
जीवने अंतर स्वभावनी आ वात क्यांथी गळे ऊतरे? पण अंतरमां आ
समज्या वगर भवभ्रमणना त्रासथी क्यांय छूटकारो थाय एम नथी.
(प) भाई, अंतरमां आत्मानो महिमा लावीने, रुचिथी आ वात
समजवा जेवी छे. आवुं मनुष्य जीवन कांई वारंवार मळतुं नथी; आवा
मनुष्य जीवनमां पण जो आत्माना हितनी दरकार न करी तो अवतार
पूरो थतां क्यां तारा उतारा थशे? अंतरमां आत्माना स्वभावनी समजण
वगर जीवने बहारमां क्यांय कोई शरणरूप थाय तेम नथी.
(६) आवा मनुष्य अवतारमां आत्मानी दरकार करवी जोईए के
अरे! मारो आत्मा आ संसारना जन्ममरणथी केम छूटे! .....आत्मानी
समजणनो एवो यथार्थ उपाय करुं के जेथी अल्पकाळमां मारो आत्मा आ
जन्ममरणथी छूटीने मुक्ति पामे.
(७) अंतरमां आत्मानी खरेखरी जिज्ञासा प्रगट करीने जे
समजवा मांगे तेने यथार्थ समजण अने सम्यग्दर्शन थया वगर रहे नहीं.
(८) एक वार पण सम्यग्दर्शनरूपी छीणीवडे जेणे मोह ग्रंथीने
भेदी नांखी तेना संसारनुं मूळियुं छेदाई गयुं, ने मोक्षनां बीज तेना
आत्मामां रोपाई गया.
(९) जेम मूळियुं छेदातां झाडनां डाळ–पान पण अल्पकाळमां
सुकाई जाय छे तेम सम्यग्दर्शनवडे संसारनुं मूळियुं छेदाई जतां
अल्पकाळमां ज रागादिनो सर्वथा अभाव थईने जीव मुक्ति पामे छे.
(१०) आ रीते सम्यग्दर्शनवडे ज जीव बंधनथी छूटीने मुक्ति पामे
छे. माटे सम्यग्दर्शन ज मोक्षनो मूळ उपाय छे–एम जाणीने मोक्षार्थी
जीवोए तेनो प्रयत्न करवा जेवो छे.