Atmadharma magazine - Ank 187
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः २४८पः २३ः
कौन हुं ईसका विचार नहीं किया, मैरा कया स्वभाव है, मुझे आत्माका सुख कैसे मिले–यह विचार कभी नहीं
किया. सब कुछ बहारमें किया, आत्मा में ही सुख है, आत्मा ही सुखका समुद्र है, लेकिन उसमें द्रष्टि नहीं की,
बहार द्रष्टि की, बहार से मुझे ज्ञान और सुख मिलेगा–ऐसा मानकर बहारमें हीं देखा. आत्मामें से ही
आत्माका ज्ञान–सुख मिलता है–ऐसा विचार भी जीवने नहीं किया.
आत्मा शरीरसे भिन्न है. शरीर तो कुछ जानता नहीं. शरीरसे भिन्न, शुभाशुभ वृत्तिसे भिन्न, सबका
ज्ञायक, और ज्ञान–सुखसे भरपूर आत्माका स्वभाव है’–‘मेरा स्वभाव क्या है’ ऐसी जिज्ञासा करे, रुचि करे
तो उसका उपाय मिलता ही है. जो खरी (–सच्ची) जिज्ञासा करता है उसको उसका उपाय मिल ही जाता है.
आत्माका विचार भी नहीं करे और बाह्यमें त्याग करे, तो ऐसे त्याग करनेसे वो प्राप्त नहीं होता. पहेले
जिज्ञासा और रुचि बढानी चाहिए कि मैं कोन हुं, मेरा आत्माका कया स्वरूप है! त्याग पीछे होता है उसके
पहेले आत्माकी श्रद्धा होती है, परंतु अनंतकालसे उसका विचार ही नहीं किया है.
करनेका क्यां है?–आत्मा का विचार करना, मैं कौन हूं–यह विचार करके निर्णय करना, यही पहले
करनेका है. शुभ होता तो है. जात्राका पूजाका भाव आता है, किन्तु उससे मेरा आत्मा भिन्न है, मेरा स्वभाव
सिद्धसमान है. नारियलमें टोपराका गोला की तरह मेरा आत्मा देहसे भिन्न, रागसे भिन्न चैतन्यमूर्ति है; एसे
आत्माका विचार करके श्रद्धा करना वही कल्याणका मार्ग है.”
विशेषमां पू. बेनश्रीबेने कह्युं हतुं के–“हम लोगोंका जो कल्याण होता है और होनेवाला है यह सब
हमारे गुरुदेवके प्रभाव है; सोनगढमें जो कुछ है वह गुरुदेवके प्रतापसे ही है. हमारी द्रष्टि पलटती है–ऊसीकी
प्रतापसे, हमारा जीवन पलटता है–वह उसीके प्रतापसे; ऊसीके प्रतापसे यह सब प्रभावना हो रही है,
स्वामीजीके स्वागतमें आप सबने अच्छा उत्साह दिखाया है; वास्तवमें तो स्वामीजी जो कहेते है ईसका स्वीकार
करना वही उनका स्वागत है. यथार्थ मार्गमें विचार करनेसे आत्माका पत्ता चलता है. आत्माका जो स्वाभाविक
अंश प्रगटते है वही धर्म है. आत्माके स्वाभाविक ज्ञान–दर्शन–सुखमें ही धर्म है. गुरुदेवका परिचय करके
आत्माका कल्याण करना यही है तो मनुष्य जन्मका कार्य है, ईसी कार्य करनेके लिये यह मनुष्य अवतार मिला
है. ईसलिये ईस मनुष्य जन्ममें सच्चे देव–गुरुकी भक्ति बढाकर, आत्माका विचार कर. आत्माका कल्याण
करना यही कर्तव्य है.
(आत्महित संबंधी पू. बेनश्रीबेनना संदेशनो अहीं मात्र सारांश ज रजू करवामां आव्यो छे.) पू.
बेनश्रीबेननो अति भाववाही सारगर्भित उपदेश सांभळीने आखी महिलासभा खूब प्रसन्न थई हती. तेमज
यात्रा दरमियान आजे लांबा काळे पू. बेनश्रीबेननो उपदेश सांभळवा मळ्‌यो तेथी यात्रिकोने पण घणो हर्ष
थयो हतो. त्यारबाद जयजयकारपूर्वक महिलासभा समाप्त थई हती. अने कोटा शहेरनो बे दिवसनो कार्यक्रम
पूरो थयो हतो.
नीमच (चैत्र वद ९ ता. १–प–प९)
सवारमां कोटाथी संघे प्रस्थान कर्युं. भक्तोए भावभीनी विदाय आपी. गुरुदेव कोटाथी बुंदी पधार्या
हता, त्यां समाजे सुंदर स्वागत कर्युं हतुं. यात्रिको उदयपुरथी वच्चे भानपुरा चा–नास्तो करीने नीमच
आव्या हता. नीमचना भाईओ गुरुदेवनुं स्वागत करवा अने प्रवचन सांभळवा खूब ज ईंतेजार हता
अने आसपासना गामोथी पण घणा माणसो आव्या हता, परंतु गुरुदेव नहि पधारवाथी तेओ थोडा
हताश थया हता. तेमणे यात्रिकोनुं वात्सल्यपूर्वक सन्मान कर्युं हतुं. बपोरे शांतिनाथ प्रभुना दरबारमां पू.
बेनश्रीबेने सरस भावभीनी भक्ति करावी हती. जिनमंदिरमां सुंदर चित्रो छे; एक चित्रमां, मृत्युसमये
जीव शरीरने कहे छे के ‘तारा माटे में घणुं कर्युं छे माटे तुं मारी साथे चाल!’ त्यारे शरीर जवाब आपे छे के
‘अमारो स्वभाव ज एवो छे के तारी साथे न आववुं;’ एवा भावनुं द्रश्य छे. जिनमंदिरमां पूजन भक्ति
बाद संघ चित्तोड आव्यो ने कलेकटरनी नवी बंधाती कचेरीमां उतर्यो. चित्तोड तरफ आवतां दूरदूरथी किल्ला
उपर बे ऊंचा स्तंभो ध्यान खेंचे छे–एक तो छे राणा मानसींहनो जयस्तंभ, अने बीजो छे जैन धर्मनो
कीर्तिस्तंभ अर्थात् मानस्तंभ.