
किया. सब कुछ बहारमें किया, आत्मा में ही सुख है, आत्मा ही सुखका समुद्र है, लेकिन उसमें द्रष्टि नहीं की,
बहार द्रष्टि की, बहार से मुझे ज्ञान और सुख मिलेगा–ऐसा मानकर बहारमें हीं देखा. आत्मामें से ही
आत्माका ज्ञान–सुख मिलता है–ऐसा विचार भी जीवने नहीं किया.
तो उसका उपाय मिलता ही है. जो खरी (–सच्ची) जिज्ञासा करता है उसको उसका उपाय मिल ही जाता है.
आत्माका विचार भी नहीं करे और बाह्यमें त्याग करे, तो ऐसे त्याग करनेसे वो प्राप्त नहीं होता. पहेले
जिज्ञासा और रुचि बढानी चाहिए कि मैं कोन हुं, मेरा आत्माका कया स्वरूप है! त्याग पीछे होता है उसके
पहेले आत्माकी श्रद्धा होती है, परंतु अनंतकालसे उसका विचार ही नहीं किया है.
सिद्धसमान है. नारियलमें टोपराका गोला की तरह मेरा आत्मा देहसे भिन्न, रागसे भिन्न चैतन्यमूर्ति है; एसे
आत्माका विचार करके श्रद्धा करना वही कल्याणका मार्ग है.”
प्रतापसे, हमारा जीवन पलटता है–वह उसीके प्रतापसे; ऊसीके प्रतापसे यह सब प्रभावना हो रही है,
स्वामीजीके स्वागतमें आप सबने अच्छा उत्साह दिखाया है; वास्तवमें तो स्वामीजी जो कहेते है ईसका स्वीकार
करना वही उनका स्वागत है. यथार्थ मार्गमें विचार करनेसे आत्माका पत्ता चलता है. आत्माका जो स्वाभाविक
अंश प्रगटते है वही धर्म है. आत्माके स्वाभाविक ज्ञान–दर्शन–सुखमें ही धर्म है. गुरुदेवका परिचय करके
आत्माका कल्याण करना यही है तो मनुष्य जन्मका कार्य है, ईसी कार्य करनेके लिये यह मनुष्य अवतार मिला
है. ईसलिये ईस मनुष्य जन्ममें सच्चे देव–गुरुकी भक्ति बढाकर, आत्माका विचार कर. आत्माका कल्याण
करना यही कर्तव्य है.
यात्रा दरमियान आजे लांबा काळे पू. बेनश्रीबेननो उपदेश सांभळवा मळ्यो तेथी यात्रिकोने पण घणो हर्ष
थयो हतो. त्यारबाद जयजयकारपूर्वक महिलासभा समाप्त थई हती. अने कोटा शहेरनो बे दिवसनो कार्यक्रम
पूरो थयो हतो.
सवारमां कोटाथी संघे प्रस्थान कर्युं. भक्तोए भावभीनी विदाय आपी. गुरुदेव कोटाथी बुंदी पधार्या
आव्या हता. नीमचना भाईओ गुरुदेवनुं स्वागत करवा अने प्रवचन सांभळवा खूब ज ईंतेजार हता
अने आसपासना गामोथी पण घणा माणसो आव्या हता, परंतु गुरुदेव नहि पधारवाथी तेओ थोडा
हताश थया हता. तेमणे यात्रिकोनुं वात्सल्यपूर्वक सन्मान कर्युं हतुं. बपोरे शांतिनाथ प्रभुना दरबारमां पू.
बेनश्रीबेने सरस भावभीनी भक्ति करावी हती. जिनमंदिरमां सुंदर चित्रो छे; एक चित्रमां, मृत्युसमये
जीव शरीरने कहे छे के ‘तारा माटे में घणुं कर्युं छे माटे तुं मारी साथे चाल!’ त्यारे शरीर जवाब आपे छे के
‘अमारो स्वभाव ज एवो छे के तारी साथे न आववुं;’ एवा भावनुं द्रश्य छे. जिनमंदिरमां पूजन भक्ति
बाद संघ चित्तोड आव्यो ने कलेकटरनी नवी बंधाती कचेरीमां उतर्यो. चित्तोड तरफ आवतां दूरदूरथी किल्ला
उपर बे ऊंचा स्तंभो ध्यान खेंचे छे–एक तो छे राणा मानसींहनो जयस्तंभ, अने बीजो छे जैन धर्मनो
कीर्तिस्तंभ अर्थात् मानस्तंभ.