Atmadharma magazine - Ank 188
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४८पः ९ः
नथी, अने तेथी बाह्य कारणोमां व्यर्थ फांफां मारे छे. जो अंतरमां धु्रव उपयोगरूप कारणस्वभावज्ञानने
लक्षमां लईने तेने ज कारणपणे स्वीकारे तो ते कारणना अवलंबने कार्य थया विना रहे नहि. आ
‘कारण’ त्रिकाळ छे, पण ते कारणने कारणपणे स्वीकारनारुं कार्य तो सादि छे. ‘कारणनी सिद्धि कार्यथी
छे’–एटले के कार्य थतां कारणनी सिद्धि’ थाय छे. कारण नवुं नथी थतुं पण ते कारणनी सिद्धि नवी थाय
छे.–कारणनी प्रसिद्धि–ओळखाण नवी थाय छे. ज्यां सुधी कारणना आश्रये कार्य प्रगट कर्युं नथी त्यां सुधी
कारणनी ओळखाण (–प्रसिद्धि) थई नथी. कारणना अवलंबने जेणे कार्य कर्युं तेने ज कारणनी खरी
ओळखाण अने प्रसिद्धि थई. ‘कारण’ शब्द ज ‘कार्य’ ने सूचवे छे अर्थात् ‘कारण’ एवुं नाम ‘कार्य’
नी अपेक्षा राखे छे, एटले ज्यां कार्य थयुं छे त्यां ज कारणनी सिद्धि थई छे. अहीं कार्य कहेतां एकलुं
केवळज्ञान न लेवुं पण स्वभावना आश्रये ज्यां सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां ज कार्यनी शरूआत थई गई छे.
सम्यग्ज्ञानरूप कार्य थतां ज धर्मीने भान थयुं के अहो! मारुं कारण तो मारामां ज छे; पहेलां पण मारामां
आवो कारणरूप स्वभाव तो हतो पण मने तेनुं भान न हतुं ने में तेनुं अवलंबन न लीधुं तेथी कार्य न
थयुं. हवे मने भान थतां आ कारणना महिमानी खबर पडी....अहो! केवळज्ञाननुं कारण थाय एवी
अचिंत्य शक्ति आत्मामां सदाय वर्ती ज रही छे, आत्मानो कोई अचिंत्य महिमा छे, शुद्ध
चैतन्यतरंग मारा स्वभावमां सदा ऊछळी रह्या छे.–आ रीते आत्मानो अचिंत्य महिमा समजातां
तेमां एकाग्रताथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थई जाय छे, ते अपूर्व छे.
आत्मा अनादिअनंत वस्तु छे, उपयोग तेनुं लक्षण छे ते पण अनादिअनंत छे, तथा ते उपयोग
शुद्धतरंगपणे सदाय वर्तमान वर्ते छे, तेनुं नामकारण स्वभावज्ञानउपयोग छे, अने तेमांथी जे केवळज्ञान प्रगटे
छे ते कार्यस्वभावज्ञान उपयोग छे. ‘उपयोग ते जीवनुं लक्षण छे’–एम कहेतां आ बंने उपयोग तेमां आवी
जाय छे.
अहीं टीकाकार कहे छे के जेवुं कार्यज्ञान छे तेवुं ज कारणज्ञान छे.–आम कहीने कार्य–कारणनी अद्भुत
संधि बतावी छे. कार्यज्ञान एटले केवळज्ञान; ते केवुं छे?–के ते कार्यस्वभावज्ञानमां क्रम नथी, ईंद्रियोनुं
अवलंबन नथी, अंतराय के आवरण नथी, तथा अल्पज्ञता नथी. अहो! केवळज्ञानना सामर्थ्यनी शी वात?
एक पछी एक पदार्थोने जाणे–एवो क्रम तेनामां नथी, ते बधुं एक साथे अक्रमे जाणे छे, तेने ईंद्रियोनी सहाय
नथी, ते अतीन्द्रिय छे, कोई पण बीजानी सहाय वगर स्वयं ज जाणतुं होवाथी ते असहाय छे, स्वाधीन छे,
तेने कोई कर्मोनुं आवरण के अंतराय नथी, तेनामां रागादि विभाव नथी, तेमज अमुक जाणे ने अमुक न जाणे–
एवी अल्पज्ञता पण तेनामां नथी.–आवुं अचिंत्यमहिमावंत कार्यस्वभावज्ञान छे; अने कारणज्ञान पण तेवुं ज
छे. केवळज्ञानरूपी कार्य थयुं ते अतीन्द्रिय छे. तो तेनुं कारण पण तेवुं ज–अतीन्द्रिय– छे. केवळज्ञान आवरण
विनानुं छे, तो कारणज्ञान पण त्रिकाळ आवरण विनानुं छे; केवळज्ञाननो कदी (–प्रगटया पछी) विरह नथी.
तेम कारणज्ञाननो कदी (–त्रण काळमां) विरह नथी. केवळज्ञानमां क्रम नथी तेम कारणज्ञानमां पण क्रम नथी,
केवळज्ञानमां ईंद्रियोनुं अवलंबन के परनी सहाय नथी तेम कारणज्ञानमां पण कोईनुं अवलंबन के सहाय नथी,
केवळज्ञान एक साथे सर्वने जाणे छे तेम कारणज्ञानमां पण तेवुं ज सामर्थ्य छे. आ रीते केवळज्ञानरूप
कार्यस्वभावज्ञाननुं जेवुं सामर्थ्य छे तेवुं ज अचिंत्य सामर्थ्य कारणस्वभावज्ञानमां त्रिकाळ छे, ने ते कारणज्ञान
आत्मामां त्रिकाळ छे. अहो! ज्यां कार्यनी वात आवे त्यां कारण पण आवुं ज बतावता जाय छे. जेणे आवा
अचिंत्यमहिमावंत अतीन्द्रिय असहाय शुद्ध कारणस्वभावज्ञाननो निर्णय कर्यो–स्वीकार कर्यो तेने बीजा कोई
परना आश्रये पोतानुं ज्ञानकार्य थवानी मिथ्याबुद्धि रहेती नथी.
केवळज्ञान ते कार्यस्वभावज्ञान छे, तेनो अचिंत्य महिमा छे, अने कारणज्ञान पण तेवुं ज छे.
केवळज्ञानरूप कार्य तो नवुं प्रगटशे पण ते केवळज्ञान प्रगटया पहेलां ज तेना कारणरूप स्वभावज्ञान अत्यारे ज
मारामां वर्ती रह्युं छे–एम धर्मी जाणे छे. केवळज्ञान प्रगटशे ते शेमांथी आवशे? शुं निमित्तकारणोमांथी
आवशे? ना; माटे ते खरेखर कारण नथी. शुं व्यवहार रत्नत्रयना रागमांथी केवळज्ञान आवशे?–ना;