Atmadharma magazine - Ank 188
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 21

background image
ः १०ः आत्मधर्मः १८८
माटे ते पण खरुं कारण नथी. शुं पूर्वनी अल्पज्ञ पर्यायमांथी केवळज्ञान आवशे?–ना; माटे ते पण खरुं कारण
नथी. कारणस्वभावज्ञान आत्मामां त्रिकाळ छे तेनामां ज केवळज्ञानरूप कार्य आपवानी ताकात छे, ते कारणना
अवलंबने ज कार्य थाय छे, माटे ते ज खरुं कारण छे. आवा सामर्थ्यस्वरूपे आत्माने द्रष्टिमां–श्रद्धामां लेवो ते
सम्यग्दर्शन छे, तेनुं ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान छे ने तेमां लीनता ते सम्यक्चारित्र छे, आ ज मुक्तिनो पंथ छे. आ
सिवाय बहारना बीजा कोई कारणथी मुक्ति थवानुं जेओ माने छे तेओ संसारना ज मार्गमां ऊभा छे.
मुक्तिना पंथने तेओ जाणता पण नथी.
आत्मानो उपयोग ज्ञान अने दर्शन एवा बे प्रकारनो छे, तेमांथी ज्ञानना प्रकारोनुं आ वर्णन चाले छे.
जे स्वभावरूपज्ञान छे ते कार्य अने कारण एम बे प्रकारनुं छे. कार्यस्वभावज्ञान ते तो केवळज्ञान छे.
ते ज्ञान उपाधि विनानुं छे,
*एकलुं शुद्ध एकरूप छे.
*कर्मना आवरण विनानुं छे,
*क्रम वगर जाणनारुं छे,
* ईंद्रियोनुं निमित्त तेमां नथी,
*देश–काळनो अंतराय तेने नथी,
*कोईनी तेने सहाय नथी;
अने कारणज्ञान पण तेवा ज सामर्थ्यवाळुं छे. टीकाकार आ कारणज्ञानने ‘स्वरूप–प्रत्यक्ष’ कहेशे, ने
कार्यरूप केवळज्ञानने ‘सकल–प्रत्यक्ष’ कहेशे.
‘कारणज्ञान’ निज परमात्मामां रहेलां सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजसुख अने सहज परम
चित्शक्तिरूप निज कारण समयसारनां स्वरूपोने युगपद् जाणवाने समर्थ छे. कार्यज्ञान तो ते सहजचतुष्टयने
जाणे ज छे, ने कारणज्ञानमां तेने जाणवानुं सामर्थ्य छे; माटे ते कारणज्ञान पण कार्यज्ञान जेवुं ज छे. जो के
कार्यज्ञाननी जेम कारणज्ञान जाणवानुं प्रगट काम नथी करतुं, परंतु तेनामां तेवुं कार्य प्रगटवानी ताकात भरेली छे
ते बताववा माटे अहीं तेने कार्यज्ञान जेवुं कही दीधुं छे.
प्रश्नः– छद्मस्थनुं ज्ञान तो आवरणवाळुं ने क्रमवाळुं ज होय छे?
उत्तरः– छद्मस्थने जे आवरण छे ते कार्यज्ञानमां (–विभावरूप कार्यज्ञानमां) छे, कारणज्ञानमां तेने
आवरण नथी; ए ज प्रमाणे जे क्रम छे ते क्रार्यमां छे, कारणज्ञानमां क्रम नथी, इंद्रियोनुं निमित्त, परोक्षपणुं वगेरे
पण कार्यज्ञानमां छे, कारणज्ञानमां इंद्रियोनुं निमित्त के परोक्षपणुं वगेरे नथी. अहो! छद्मस्थदशा वखते पण
केवळज्ञान जेवुं ज सामर्थ्य कारणस्वभावज्ञानमां छे; आवा सामर्थ्यनी प्रतीत करीने तेनी सन्मुख परिणमतां,
परिणमतां, जेवुं कारण छे तेवुं ज कार्य प्रगटी जाय छे
एटले के केवळज्ञान थाय छे. संसारदशा वखते पण
कारणस्वभावज्ञानने कोई विघ्न नथी, अने जेणे आवा कारणनुं अवलंबन लीधुं तेने केवळज्ञानरूप कार्य थवामां
वच्चे विघ्न आवतुं नथी.
आ रीते कारणरूप तथा कार्यरूप एवा शुद्धज्ञाननुं स्वरूप कह्युं. तेमां जे कारणस्वभावज्ञान छे ते
निश्चयनयनो विषय छे–द्रव्यद्रष्टिनो विषय छे. अने जे कार्यज्ञान छे ते व्यवहारनयनो विषय छे. जेने
कार्यस्वभावज्ञान ऊघडी गयुं छे तेने पोताने कांई व्यवहारनय होतो नथी, पण बीजो जीव ज्यारे ते कार्यने
लक्षमां ल्ये त्यारे तेने व्यवहारनय होय छे; अने ज्यारे पोताना कारणस्वभावज्ञानने लक्षमां ल्ये त्यारे तेनुं
ज्ञान अंर्तस्वभाव तरफ वळेलुं होय छे एटले तेने निश्चयनय होय छे.
निश्चयनयनुं जे ज्ञेय छे ते ज
खरेखर केवळज्ञाननुं कारण छे; अने जे व्यवहारनयनुं ज्ञेय छे ते खरेखर केवळज्ञाननुं (–के सम्यग्दर्शनादिनुं
पण) कारण नथी. कारणस्वभावज्ञानना अवलंबने ज्यां केवळज्ञान प्रगटयुं त्यां कारण अने कार्य बंने सरखा
थया, अर्थात् कारणमां जेवुं सामर्थ्य हतुं तेवुं परिपूर्ण सामर्थ्य कार्यमां पण प्रगटी गयुं. आवा कारणस्वभावनी
प्रतीति ते सम्यग्दर्शन छे, समकितीने निर्विकल्प आनंदना वेदनसहित आवा कारणस्वभावनी प्रतीति
थई गई छे. पछी ते कारणमां जेम जेम एकाग्रता वधती जाय छे तेम तेम आनंदनुं वेदन पण वधतुं जाय
छे. ए रीते कारणनी सन्मुख थईने घणा आनंदना झूलता झूलता महामुनिभगवाने आ