परंपराथी आवेली वात! संतोए अंतरना कोई अचिंत्य सूक्ष्म रहस्यो खोल्यां छे. कोईने विशेष न समजाय
तो सामान्यपणे एम महिमा करवो के ‘अहो! मारा स्वभावना कोई अचिंत्य महिमानी आ वात छे, मारा
आत्मस्वभावनो अचिंत्य महिमा संतो समजावी रह्या छे. ‘–आ रीते आ सांभळतां स्वभावनुं बहुमान
लावशे ते पण न्याल थई जशे.
उल्लास करवो ते मोक्षनुं कारण छे. जीवने ज्यां स्वभाव तरफनो उल्लास जाग्यो त्यां विकार तरफनो
उल्लास रहेतो नथी एटले विकारना उछाळा शमी जाय छे. संसार तरफनो उत्साह तूटी जाय छे ने
स्वभाव तरफ तेनो उत्साहनो वेग वळी जाय छे–आवो उल्लासीत वीर्यवान जीव अल्पकाळमां ज
मोक्ष पामे छे.
साधतां साधकसंतोना आत्मामांथी आ वात नीकळी छे. जंगलमां वसता ने आत्माना आनंदमां
झुलता मुनिना अंतरमांथी आ रहस्य नीकळ्यां छे....अंतरना अध्यात्मना ऊंडाणमांथी आ प्रवाह
वह्यो छे....अंर्तस्वरूपना अनुभवने मुनिओए प्रसिद्ध कर्यो छे.... तद्न निकटपणे केवळज्ञान सधाई
रह्युं छे, त्यां ते कार्यने साधतां साधतां तेना कारणनो अचिंत्य महिमा कर्यो छे के अहो! आ अमारा
केवळज्ञाननुं कारण! अंतरमां शक्ति साथे व्यक्तिनी संधि करीने, कारण साथे कार्यनी संधि करीने
मुनिओना आत्मामांथी, सिद्धपदने साधतां साधतां आ रणकार ऊठया छे. अहो! सिद्धपदना साधक
मुनिओनी शी वात! अलौकिक अध्यात्मनां घणां रहस्यो तेमना अनुभवना ऊंडाणमां भर्या छे.
बहार तो अमुक आवे अंतरना ऊंडाणमांथी अलौकिक रहस्यो मुनिओए बहार काढयां छे. आ अंतरनी
अद्भुत वात छे!
‘ब्रह्मस्वरूप’ छे ने तेमां अंतर्मुख थवानो आ उपदेश छे तेथी आ ‘ब्रह्मोपदेश’ छे. केवो छे आ
ब्रह्मोपदेश? के संसारनुं मूळी छेदी नांखनार छे. जे जीव आ ब्रह्मस्वरूप आत्मस्वभावने जाणीने तेमां
अंतर्मुख थाय छे तेनो संसार छेदाई जाय छे. वेदांतवाळा जे अद्वैत–ब्रह्मा कहे छे तेनी आ वात नथी,
विशेष वगरनुं एकांत अद्वैत सामान्य ते तो ससलाना शींगडानी जेम असत् होवाथी मिथ्या छे. अहीं
तो पर्यायने अंतर्मुख करीने विशेष सहितना सामान्यनी कोई अचिंत्य वात छे. जे कार्य थयुं ते
विशेष छे, ने तेनुं जे एकरूप कारण छे ते सामान्य छे. ए रीते सामान्य–विशेषनी एकतारूप
अनेकांत वस्तु स्वरूप छे.
अनादिअनंत स्थित छे.