Atmadharma magazine - Ank 188
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४८पः ११ः
रचना करी छे. वाह! वीतरागी मुनिओना मुखमांथी अमृत झर्यां छे. जुओ, आ गणधरादि संतोनी
परंपराथी आवेली वात! संतोए अंतरना कोई
अचिंत्य सूक्ष्म रहस्यो खोल्यां छे. कोईने विशेष न समजाय
तो सामान्यपणे एम महिमा करवो के ‘अहो! मारा स्वभावना कोई अचिंत्य महिमानी आ वात छे, मारा
आत्मस्वभावनो अचिंत्य महिमा संतो समजावी रह्या छे. ‘–आ रीते आ सांभळतां स्वभावनुं बहुमान
लावशे ते पण न्याल थई जशे.
अहो, आत्मानो स्वभाव एकेक समयमां पूरो.....पूरो....ने पूरो....दरेक समये आत्मा पोताना
स्वभावसामर्थ्यथी परिपूर्ण बिराजी रह्यो छे. आवा निजस्वभावना सामर्थ्यनो विश्वास करीने तेनो
उल्लास करवो ते मोक्षनुं कारण छे. जीवने ज्यां स्वभाव तरफनो उल्लास जाग्यो त्यां विकार तरफनो
उल्लास रहेतो नथी एटले विकारना उछाळा शमी जाय छे. संसार तरफनो उत्साह तूटी जाय छे ने
स्वभाव तरफ तेनो उत्साहनो वेग वळी जाय छे–आवो उल्लासीत वीर्यवान जीव अल्पकाळमां ज
मोक्ष पामे छे.
अहो! केवळज्ञानरूपी कार्य प्रगटवाना आधाररूप कारणस्वभावज्ञान आत्मामां सदाय स्वरूप–
प्रत्यक्षपणे वर्ती ज रह्युं छे.–आ वात क्यांथी नीकळी? कारणना आश्रये सिद्धदशारूप कार्यने साधतां
साधतां साधकसंतोना आत्मामांथी आ वात नीकळी छे. जंगलमां वसता ने आत्माना आनंदमां
झुलता मुनिना अंतरमांथी आ रहस्य नीकळ्‌यां छे....अंतरना अध्यात्मना ऊंडाणमांथी आ प्रवाह
वह्यो छे....अंर्तस्वरूपना अनुभवने मुनिओए प्रसिद्ध कर्यो छे.... तद्न निकटपणे केवळज्ञान सधाई
रह्युं छे, त्यां ते कार्यने साधतां साधतां तेना कारणनो अचिंत्य महिमा कर्यो छे के अहो! आ अमारा
केवळज्ञाननुं कारण! अंतरमां शक्ति साथे व्यक्तिनी संधि करीने, कारण साथे कार्यनी संधि करीने
मुनिओना आत्मामांथी, सिद्धपदने साधतां साधतां आ रणकार ऊठया छे. अहो! सिद्धपदना साधक
मुनिओनी शी वात! अलौकिक अध्यात्मनां घणां रहस्यो तेमना अनुभवना ऊंडाणमां भर्या छे.
बहार तो अमुक आवे अंतरना ऊंडाणमांथी अलौकिक रहस्यो मुनिओए बहार काढयां छे. आ अंतरनी
अद्भुत वात छे!
त्रिकाळ कारणस्वभावरूप ज्ञाननी प्रतीत करतां साधकदशारूप कार्य प्रगटी जाय छे, अने तेनुं पूरुं
कार्य तो केवळज्ञान छे. त्रिकाळ वर्ततुं स्वरूप–प्रत्यक्ष ज्ञान छे ते ज केवळज्ञाननुं अभेदकारण छे; ते
‘ब्रह्मस्वरूप’ छे ने तेमां अंतर्मुख थवानो आ उपदेश छे तेथी आ ‘ब्रह्मोपदेश’ छे. केवो छे आ
ब्रह्मोपदेश?
के संसारनुं मूळी छेदी नांखनार छे. जे जीव आ ब्रह्मस्वरूप आत्मस्वभावने जाणीने तेमां
अंतर्मुख थाय छे तेनो संसार छेदाई जाय छे. वेदांतवाळा जे अद्वैत–ब्रह्मा कहे छे तेनी आ वात नथी,
विशेष वगरनुं एकांत अद्वैत सामान्य ते तो ससलाना शींगडानी जेम असत् होवाथी मिथ्या छे. अहीं
तो पर्यायने अंतर्मुख करीने विशेष सहितना सामान्यनी कोई अचिंत्य वात छे. जे कार्य थयुं ते
विशेष छे, ने तेनुं जे एकरूप कारण छे ते सामान्य छे. ए रीते सामान्य–विशेषनी एकतारूप
अनेकांत वस्तु स्वरूप छे.
केवळज्ञानना आधाररूप जे कारणस्वभावज्ञान छे तेने ‘परम पारिमाणिक भावमां स्थित’ कह्युं छे.
केवळज्ञान ते क्षायिकभावमां सादि–अनंत स्थित छे ने आ कारणस्वभावज्ञान परम पारिणामिकभावमां
अनादिअनंत स्थित छे.
अहीं कोई एम कहे के–जेम क्रोधादिने कर्मना उदयनी अपेक्षाए तो औदयिकभावे कह्या, अने बीजानी
अपेक्षा विना तेने पारिणामिकभावे कह्या; तेम अहीं पण कर्मना क्षयनी अपेक्षाए तो केवळज्ञानने क्षायिक–