तेनो विरह हतो. कारणस्वभावज्ञाननुं पहेलां भान न हतुं ते अपेक्षाए तेनो विरह कहेवाय, छतां त्यारे
पण तेनो कांई अभाव न हतो. कारणज्ञानने तो स्वरूपप्रत्यक्ष कह्युं छे, केवळज्ञानने स्वरूप–प्रत्यक्ष नथी
कह्युं पण सकलप्रत्यक्ष कह्युं छे. आ रीते केवळज्ञान ते ज कारण स्वभावज्ञान नथी–एम समजवुं. ज्ञाननो
जे त्रिकाळप्रत्यक्षस्वभाव छे तेने अहीं स्वरूप–प्रत्यक्ष सहजज्ञान अथवा कारणस्वभावज्ञान कहीने
ओळखाव्यो छे. आ कारणस्वभावज्ञान तो बधाय जीवोमां त्रिकाळ वर्ती ज रह्युं छे. जेवा सिद्ध भगवंतो
लोकागे्र बिराजमान छे तेवा ज भवलीन संसारी जीवो छे अर्थात् ‘सर्व जीव छे सिद्धसम’–एम कह्युं छे,
तेमां तो शक्ति अपेक्षाए कह्युं छे, कांई सिद्ध भगवंतोनी माफक पूर्ण ज्ञान आनंदरूप सिद्धदशा संसारी
जीवोने प्रगट नथी. परंतु आ जे कारण–स्वभावज्ञान छे ते तो बधाय जीवोने सदाय वर्ती ज रह्युं छे, ते
कांई नवुं नथी थतुं, पण तेना आश्रये सम्यग्ज्ञान नवुं प्रगटे छे. त्रिकाळ ज्ञानस्वभाव शुद्ध छे, ने तेना
आश्रये थतुं केवळज्ञान पण शुद्ध छे, एक कारणरूपे शुद्ध छे, ने बीजुं कार्यरूपे शुद्ध छे.
आनंद साथे एकमेक छे, सहज चतुष्टय सहित ज सदा शोभी रह्युं छे.
कारणज्ञान होय छे, ने ते कारणनो महिमा करीने तेमां लीन थतां केवळज्ञान खीली जाय छे. अज्ञानी
एकली पर्यायनो महिमा करीने बाह्य कारणोनी शोधमां रोकाय छे, पण केवळज्ञान प्रगटवाना आधाररूप
जे त्रिकाळी कारणज्ञान पोताना स्वभावमां वर्ती रह्युं छे तेना महिमानी तेने खबर नथी. जो पोताना
कारण स्वभावनो महिमा आवे तो तेना जोरे शुद्ध कार्य प्रगटे, ने बाह्य कारणोनी द्रष्टि छूटी जाय.
केवळज्ञान थया पहेलां पण पोतामां जे धु्रव कारणरूप स्वभाव छे तेनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे,
ने पछी ते कारणनो महिमा करीने तेमां एकाग्रतानुं जोर देतां केवळज्ञान खीली जाय छे.
थाय तेम तेम तेनो महिमा आवे. जेम भरवाडना हाथमां सवा लाखनी किंमतनो चकचकतो हीरो
आवे,–पण ओळखाण वगर तो तेनो तेने शुं महिमा आवे! ते तो तेने सारो–मजानो काचनो कटको
मानीने बकरीनी डोके बांधी दे. पण ज्यां झवेरीने बतावे के अरे, आ तो ऊंची जातनो सवा लाखनो
हीरो छे!–तो एनी किंमत जाणतां तेने तेनो महिमा आवे छे.–तेम अहीं भरवाड एटले अज्ञानी–
मिथ्याद्रष्टि जीव, तेनी पासे महाकिंमती चैतन्यरत्न छे पण ओळखाण वगर तेने तेनो यथार्थ महिमा
आवतो नथी एटले ते तो बकरीनी डोकनी माफक शुभ–अशुभ रागमां ज चैतन्यरत्नने बांधे छे. पण
भेदज्ञानी–झवेरी तेने समजावे छे के, “अरे मूढ! भरवाड जेवा! आ तारुं चैतन्यरत्न शुभा–शुभ राग
जेटलुं नथी तारुं चैतन्यरत्न तो ज्ञान–आनंद–प्रभुता वगेरे अनंतऋद्धिथी भरेलुं छे, उपशांतरसना
मोजां तेमां ऊछळे छे, चैतन्यनी प्रभा तेमां चमके छे, तेमांथी अतीन्द्रियप्रकाशना किरणो छूटे छे.”–ज्यां
आवुं भान थयुं त्यां तेनो अपार महिमा आव्यो के अहो! आवुं मारुं चैतन्यरत्न! आवो महिमा
आवतां ते पोताना चैतन्यरत्नने राग साथे बांधतो नथी,–रागमां एकाग्रता करतो नथी पण पोते
पोताना स्वभावमां ज एकाग्र थाय छे. आ रीते आत्मानुं स्वरूप जाणे तो तेनो खरो महिमा आवे ने
तेमां एकाग्र थईने मुक्ति पामे. आत्मा वर्तमान पण परिपूर्ण स्वभावथी भरेलो छे, तेनो महिमा
आव्या वगर कोई जीवने