Atmadharma magazine - Ank 188
(Year 16 - Vir Nirvana Samvat 2485, A.D. 1959)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४८पः १३ः
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र के मोक्षरूपी कार्य प्रगटे नहि. माटे अहीं संतो आत्मानुं स्वरूप ओळखावे छे के हे
भाई! तारा आत्मानो स्वभाव कोई समये अधूरो नथी, वर्तमान पण परिपूर्ण स्वभाव छे माटे तेनो ज
महिमा लावीने तेमां अंतर्मुख था, तेना उपर जोर आप,–एटले के तेनी प्रधानता कर, तेने ज मुख्य कर, तेनुं ज
अवलंबन कर, तेनो ज आदर कर, तेनो ज आश्रय कर, तेमां ज उत्साह कर, तेमां ज तत्पर था, तेनी ज
आराधना कर, तेनुं ज ध्यान कर, तारो आ स्वभाव सर्वशक्तिमान प्रभु छे, तेने कोई दबावनार नथी, तेमां
कोई नडतर नथी, तेने काळ के कर्मो आवरी शकता नथी, अनादिअनंत ज्यारे जो त्यारे वर्तमानमां ज ते पूरो
छे, कोई समये वर्तमानमां ते पूरो नथी–एम नथी; तुं जे समये अंतर्मुख थईने आवा तारा आत्मस्वभावने
पकड ते समय तारो पोतानो छे, ते स्वसमय छे. आत्मामां हरेक समये परिपूर्णता पडी छे; पूरुं कार्य प्रगटाववा
माटे आत्मामां वर्तमान पूरुं कारण नथी–एवुं कोई क्षणे बनतुं नथी. ‘पूरुंकारण’ दरेक समये विद्यमान छे, ते
कारणना स्वीकारथी कार्य प्रगटी जाय छे.
जुओ, आ अंतरना कारण–कार्यनी सृष्टि!! आत्माना कारणस्वभावमांथी ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप कार्यनी सृष्टि–उत्पत्ति थाय छे. आमां कार्य ते तो उत्पाद–व्ययरूप परिणाम छे, ते पहेलां नथी होतुं ने
पछी प्रगटे छे. अने कारणस्वभाव ते धु्रवरूप परिणाम छे, ते सदाय विद्यमान छे, तेनामां उत्पाद–व्यय नथी.
केवळज्ञानना कारणरूप जे धु्रवज्ञानपरिणाम छे तेने सहजस्वभावज्ञान अथवा स्वरूप–प्रत्यक्षज्ञान कहे छे.
तेनामां आत्मानां सहज चतुष्टयने युगपत् जाणवानुं सामर्थ्य त्रिकाळ छे; ते त्रिकाळनी साथे वर्तमाननी एकता
थतां ते वर्तमान पर्याय पण पूरा सामर्थ्यरूपे परिणमी जाय छे.
* त्रिकाळ सामर्थ्यमांथी वर्तमान आवे छे,
* ध्रुवना आश्रये ज उत्पाद थाय छे,
* द्रव्यमांथी पर्याय आवे छे,
* कारणना आश्रये कार्य थाय छे,
* शक्तिमांथी व्यक्ति थाय छे,
* ‘प्राप्त’ नी प्राप्ति थाय छे,
* निश्चयना आश्रये मुक्ति थाय छे,
* ज्ञायकस्वभावी आत्मा विकारनो अकर्ता छे,
* आत्मानी शक्तिओ बाह्य कारणोथी अत्यंत निरपेक्ष छे,
* आत्मा अने पर दरेक द्रव्यनुं परिणमन स्वतंत्र छे,
–आमांथी कोई पण बोलनो निर्णय करतां बधाय बोलनो निर्णय थई जाय छे; ने आ जैनशासननी
मूळ वस्तु छे. आ वस्तु समज्या वगर जैनधर्मनुं रहस्य समजाय नहि, ने अंतर्मुख वळ्‌या वगर आ वस्तु
समजाय नहीं.
आत्मा पोते परम स्वरूप होवाथी परमात्मा छे. तेनामां सहज दर्शन, सहज चारित्र, सहज सुख अने
सहज परम चित्शक्ति त्रिकाळ रहेली छे, ते ‘कारणसमयसार’ नुं स्वरूप छे. अहीं सहज चतुष्टयने
कारणसमयसार कहे छे, ते ज कारणपरमात्मा छे, ने ते त्रिकाळ एकरूप छे, तेना आश्रये अनंतचतुष्टयरूप कार्य
समयसारपणुं प्रगटे छे. अने ‘समयसार’ वगेरेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपे परिणमेला आत्माने
‘कारणसमयसार’ कहे छे, ते जुदी वात छे, तेमां तो मोक्षमार्गनी वात छे. मोक्षना कारणरूप मोक्षमार्गपणे
आत्मा परिणम्यो तेथी तेने ‘कारणसमयसार’ कह्यो. खरेखर जे धु्रवरूप कारणसमयसार छे ते ज मोक्षनुं
निश्चयकारण छे, अने जे आ मोक्षमार्गरूप कारणसमयसार छे ते मोक्षनुं कारणव्यवहारे छे. मोक्षमार्ग तरीके तो
ते निश्चय छे, परंतु मोक्षना कारण तरीके ते व्यवहार छे.
जुओ, अहीं निश्चय मोक्षमार्गने पण मोक्षनुं कारण कहेवुं–तेनेय व्यवहार कह्यो, केमके मोक्षमार्गनी पर्याय
कांई मोक्षदशा नथी लावती, एक पर्यायना आश्रये बीजी पर्याय नथी. मोक्षमार्गनी पूर्णता थतां मोक्ष थाय छे–
ए नियम छे, पण ते मोक्ष कोना