ः ८ः आत्मधर्मः १८८
तेमज तेने ‘मोक्षनुं मूळ’ अने ‘उपादेय’ कहीने ते सहजज्ञानना विलासरूपे आत्मानी भावना करवानुं कहेशे.
आमां पण अद्भुत वात आवशे जुओ, मूळगाथा–
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं त्ति।
सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं।। ११।।
सणाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं।
अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव।। १२।।
असहाय, ईंद्रिविहीन, केवळ, ते स्वभाविकज्ञान छे;
सुज्ञान ने अज्ञान–एम विभावज्ञान द्विविध छे. ११
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय–भेद छे सुज्ञानना;
कुमति कुअवधि, कुश्रुत–ए त्रण भेद छे अज्ञानना. १२
जे केवळ, ईंद्रियरहित अने असहाय छे ते स्वभावज्ञान छे. सम्यग्ज्ञान अने मिथ्याज्ञान एवा भेदथी
विभावज्ञान बे प्रकारनुं छे. (अहीं विभावज्ञानने जेम बे प्रकारनुं कह्युं तेम स्वभावज्ञानने पण कारण अने
कार्य एवा बे प्रकारनुं वर्णवीने टीकाकार अद्भुत वात समजावशे.)
विभावज्ञान जे सम्यग्ज्ञान छे तेना चार भेद छे–मति, श्रुत, अवधि अने मनःपर्यय तथा जे अज्ञान छे
तेना त्रण भेद छे–कुमति, कुश्रुत अने विभंग.
मति–श्रुत आदि चार ज्ञानो सम्यक् होवा छतां हजी अधूरा छे ने आवरण सहित छे तेथी तेमने विभाव
ज्ञान कहेल छे. अने कुमति वगेरे त्रण ज्ञान तो विपरीतरूप ज छे तेथी तेमने विभावज्ञान कहे छे.
जेमां ईंद्रियोनुं अवलंबन नथी, कर्मनुं आवरण नथी, परनी सहाय नथी एवुं एकलुं असहाय निरपेक्ष
ज्ञान ते स्वभावज्ञान छे.–आ स्वभावज्ञान परम महिमावंत छे, तेनुं वर्णन करतां कारण अने कार्य बंनेने साथे
ने साथे ज राखीने टीककार अद्भुत वात करे छे.
“जे उपाधि विनाना स्वरूपवाळुं होवाथी केवळ (एकलु, शुद्ध) छे, आवरण विनाना स्वरूपवाळुं होवाथी
क्रम, ईंद्रिय अने व्यवधाना (–आड विघ्न) थी रहित छे, एक एक वस्तुमां नहि व्यापतुं होवाथी (–समस्त
वस्तुने एक साथे जाणतुं होवाथी) असहाय छे, ते कार्यस्वभावज्ञान छे. अने कारणज्ञान पण तेवुं ज छे.”
जीवनुं उपयोग लक्षण छे, तेना भेदोनुं आ वर्णन छे. आ देहथी जुदो चैतन्यमूर्ति अरूपी आत्मा
अनादिअनंत वस्तु छे, तेनुं उपयोग लक्षण पण अनादिअनंत छे. ते उपयोगनो ‘कारणस्वभावज्ञान’ नामनो
एक प्रकार छे ते पण अनादिअनंत छे, आत्मा साथे ते त्रिकाळ एकरूप वर्ते छे; तेना आधारे केवळज्ञानरूप
कार्यस्वभावज्ञान प्रगटे छे, ते सादिअनंत छे.
अहीं कहे छे के जेवुं कार्यस्वभावज्ञान छे तेवुं ज कारणस्वभावज्ञान छे जो के कार्यज्ञान तो सादिअनंत छे
ने कारणज्ञान तो अनादिअनंत छे, ए रीते तेमां फेर छे, छतां–जेवुं ‘शुद्ध कार्य’ प्रगटयुं तेवुं ज तेनुं ‘शुद्ध
कारण’ त्रिकाळ वर्ते छे एम ओळखाववा माटे अहीं ‘कार्यस्वभावज्ञान जेवुं ज कारणस्वभावज्ञान छे’–एम
कह्युं छे; ए रीते शुद्ध कार्य उपरथी तेना कारणनी ओळखाण करावी छे. केवळज्ञान ते तो कार्यस्वभावज्ञान छे, ते
नवुं प्रगटे छे; ते केवळज्ञानरूप कार्य शेमांथी प्रगटयुं?–तो कहे छे के ते कार्य जेवुं ज एक कारणस्वभावज्ञान छे
तेमांथी ज ते कार्य प्रगटे छे. जुओ, आ आत्माना स्वभावकार्यनुं कारण! केवळज्ञानरूप जे स्वभावकार्य थयुं तेनुं
कारण कोई निमित्त तो नहि, व्यवहार रत्नत्रयनो राग ते पण कारण नहि, अने मति–श्रुतज्ञानरूप जे
पूर्वपर्याय ते पण परमार्थे कारण नहि, पण आत्मानी साथे त्रिकाळ वर्ततुं एवु जे कारणस्वभावज्ञान ते ज
केवळज्ञाननुं परमार्थ कारण छे, तेमां ज लीनताथी केवळज्ञान थाय छे. माटे कह्युं के जेवुं कार्यस्वभावज्ञान छे तेवुं
ज कारणज्ञान छे.
जुओ, अहीं ‘कारण जेवुं कार्य छे’ एम न कहेतां ‘कार्य जेवुं कारण छे’ एम कह्युं; केम के कार्य व्यक्त–
प्रगट छे ते प्रगट द्वारा अप्रगट शक्तिरूप कारण ओळखाववुं छे. कार्य उपरथी कारण ओळखावे छे.
केवळज्ञानरूपी कार्य प्रगटे छे तो समज के अंदरमां तेवा ज सामर्थ्यवाळुं कारण पडयुं छे. जेवुं कार्य प्रगटयुं तेवुं
ज तेनुं कारण आत्मामां वर्ते छे, तारा आत्मामां केवळज्ञाननुं कारण अत्यारे पण वर्ते छे, ते कारणनुं अवलंबन
लेवाथी कार्य प्रगटी जाय छे. सामान्यरूपे लोकोने केवळज्ञानरूप कार्यनो तो महिमा आवे छे, पण ते
केवळज्ञानरूप कार्य थवानुं कारण अत्यारे पोतामां पडयुं छे–ते तेमना लक्षमां आवतुं