जेठः २४८पः ७ः
(६)
* ज्ञानउपयोग प्रकारो; तेमा उपादेयरूप स्वरूप–प्रत्यक्ष सहजज्ञाननुं वर्णन*
(श्री नियमसार गा. ११–१२ उपरनां प्रवचनो)
आ ब्रह्मोप्रदेश छे.....केवो छे आ ब्रह्मोपदेश?–
संसारना मूळने छेदी नांखनार छे... ‘अहो! मारा
स्वभावनो कोई अचिंत्य महिमा संतो समजावी
रह्यो छे’ –आम स्वभावनुं बहुमान लावशे ते पण
न्याल थई जशे. अहो! आत्मानो स्वभाव एकेक
समयमां पूरो..... पूरो....ने पूरो. आवा
निजस्वभावना सामर्थ्यनो विश्वास करीने तेनो
उल्लास करवो ते मोक्षनुं कारण छे. जीवने ज्यां
स्वभाव तरफनो उल्लास जाग्यो त्यां विकार तरफनो
उल्लास रहेतो नथी, एटले विकारना ऊछाळा शमी
जाय छे, संसार तरफनो उत्साह तूटी जाय छे ने
स्वभाव तरफ तेना उत्साहनो वेग वळी जाय छे.–
आवो उल्लासीत वीर्यवान जीव अल्पकाळमां ज
मोक्ष पामे छे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे रचेलुं आ नियमसार महा अलौकिक शास्त्र छे, अध्यात्मना घणा ऊंडा
भावो तेमां भर्या छे. अने टीकाकार प्रद्मप्रभ–मुनिराजे पण सूक्ष्म रहस्यो खोलीने आत्माना परमस्वभावने
प्रकाशीत कर्यो छे.
दसमी गाथामां आत्माना उपयोग–लक्षणनुं वर्णन करतां स्वभावज्ञानउपयोग ‘कारण’ अने ‘कार्य’
एवा बे प्रकार बताव्या, अने तेमांथी कारणस्वभावज्ञानउपयोगने ‘परम पारिणामिकभावे रहेलुं त्रिकाळ
निरूपाधिरूप सहजज्ञान’ कहीने अलौकिक वर्णन कर्युं. तेनुं घणुं विवेचन थई गयुं छे. हवे वळी, ११–१२ मी
गाथामां उपयोगना भेदोनुं वर्णन करतां आ सहजज्ञानने (–अर्थात् कारणस्वभावज्ञानउपयोगने ज)
‘स्वरूप–प्रत्यक्ष’ तरीके वर्णवशे,