जेठः २४८पः १पः
लींबडी शहेरना
पंचकल्याणक वखतनां प्रवचनो
अंक १८३ थी चालु
(वीर सं. २४८४ वैशाख सुद १० थी १३)
चारित्रना महिमानुं झरणुं.....
ने आनंदरसनुं पीणुं
लींबडी शहेरमां पंचकल्याणक वखते, भगवाननी दीक्षा बाद दीक्षावनमां पू. गुरुदेवनुं आ प्रवचन चाली
रह्युं छे; गुरुदेव अद्भुत वैराग्यपूर्वक चारित्रदशाना महिमानुं झरणुं वहेवडावी रह्या छेः
अहा, चारित्र! धन्य ए दशा! गणधरो जेने आदरे छे, इन्द्रो अने चक्रवर्तीओ जेनां चरणे मस्तक झूकावे
छे, ए दशा केवी! जेने दुःखथी मुक्त थवुं होय तेणे आवी दशा ओळखीने ते प्रगट कर्ये छूटको छे. पद्मनंदीस्वामी
कहे छे के हे नाथ! आपे केवळज्ञान–निधि प्रगट करीने देखाडी, चैतन्यना अपार अचिंत्य निधान आपे प्रगट
देखाडयां, तो हवे कोण एवो छे के आ चैतन्यनिधान पासे इन्द्रासनने पण तरणां जेवुं समजीने दीक्षित न
थाय? मुनिवरो आत्मरसमां चडीने निर्विकल्प आनंदना पीणां पीए छे; जेम पुनमनो चंद्र दरियाने उछाळे तेम
चैतन्यना ध्यानवडे मुनिवरो अंतरना आनंदना दरियाने उछाळे छे. अहा, ए आनंदना अनुभव पासे इन्द्रनो
वैभव तो शुं, त्रण लोकनो वैभव पण अत्यंत तुच्छ छे.
ज्ञानी वगाडे छे–आनंदनी वीणा
समकितीए पण पोताना शुद्ध स्वरूपने जाणीने तेना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद चाखी लीधो छे, अने ते
जाणे छे के मारा स्वभावना आ आनंद पासे जगतना बधाय विषयो अत्यंत तुच्छ छे. अंतरमां एकाग्र थईने
ज्ञानी आनंदना तारनी वीणा वगाडे छे. तेमांथी रणकार ऊठे छे के–
कहे विचक्षण पुरुष सदा में एक हुं,
अपने रसमें भर्यो अनादि टेक हुं;
मोह करम मम नाहीं नांही भ्रमकूप है,
शुद्ध चेतना सिंधु हमारो रूप है.
अंदरमां निःशंकपणे चैतन्यवीणाना तार झणझणावीने धर्मात्माना हृदयमांथी रणकार ऊठे छे के हुं तो
सदाय मारा ज्ञान ने आनंद रसथी भरेलो एक छुं, ए ज अनादिनी टेक छे. मोह मारा स्वरूपमां नथी, शुद्ध
चेतनानो दरियो ते ज मारुं रूप छे. पहेलां आवुं भान कर्या पछी ज तेमां लीनतावडे मुनिदशा होई शके.
भगवान आदिनाथने आवुं अंर्तभान अनेक भव पहेलां थयुं हतुं, ने आ भवमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान उपरांत
चारित्रनी आराधना पूरी करीने परमात्मा थया.