ः १६ः आत्मधर्मः १८८
मुनिवरोनी उदासीनता
मुनिवरोनी परिणति एकदम अंर्तस्वरूपमां ढळी गई छे एटले जगत तरफथी तेमने अत्यंत
उदासीनता छे. जेम वीस वरसनो एकनो एक पुत्र मरी जतां तेनी माता उदास–उदास थई जाय, तेम जेनो
मोह मरी गयो छे एवा मुनिवरो संसार तरफथी एकदम उदासीन थई गया छे. द्रष्टांतमां मातानी उदासीनता
तो मोहकृत छे, ज्यारे मुनिवरोनी उदासीनता तो निर्मोहीपणाने लीधे छे; माता पुत्रप्रेमने लीधे उदास थई छे,
तो मुनि चैतन्यप्रेमने लीधे संसारथी उदासीन थया छे.
धन्य ए काळ! ..........धन्य ए आनंदधारा
आदिनाथ भगवान दीक्षा लईने वनमां छ महिमा सुधी ध्यानस्थ रह्या. अहा, धन्य ए काळ!–ज्यारे
प०० धनुष ऊंचा आदिनाथ मुनिराज नग्नपणे वनमां छ–छ महिना सुधी ध्यानमां ऊभा हशे.....ए देखाव
केवो हशे? पुराणोमां तेनुं अद्भुत वर्णन आवे छे. वननां पशुओ–सिंह अने हरणो पण आश्चर्यथी भगवान
सामे जोई रहे छे.....ने भगवाननी शांत छायामां एकठा थईने बेसे छे. भगवान तो पोताना ध्यानमां छे,
अंतरनी आनंदधारामां मशगूल छे. चारित्रदशा ए कांई असिधारा नथी, ए तो आनंदनी धारा छे; बहारथी
जोनारा कायर जीवोने ते असिधारा लागे छे, पण अंतरमां तो आनंदनी धारा छे. जो चारित्रदशामां आनंदनी
धारा न होय ने दुःख होय तो एने कोण आदरे!! चारित्र तो स्वरूपमां स्थिरता छे, ने स्वरूपनी स्थिरतामां
आनंदनो अनुभव छे. आवी चारित्रदशा वगर मुक्ति नथी.
संत विना भवनो अंत नहीं
“चेतन रूप अनूप अमूरत
सिद्ध समान सदा पद मेरो”
–आवा पोताना सिद्धस्वरूपना श्रद्धा–ज्ञान तो गृहस्थदशामांय सम्यग्द्रष्टिने होय छे, पण ए सिद्धपदना
साक्षात् साधक तो चारित्रधर मुनिवरो छे. ज्यां स्वरूपनी घणी लीनतावडे कषायो अतिशय क्षीण थई गया होय,
वारंवार निर्विकल्प आनंदना अनुभवमां एकाग्र थता होय, एवी संतदशा वगर भवना अंत आवता नथी.
मोक्षमार्ग
पंचास्तिकायमां वीतराग चारित्रने ज साक्षात् मोक्षमार्ग कह्यो छे; वीतरागचारित्र सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञान विना होतुं नथी, एटले के तेमां सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान पण भेगां आवी ज जाय छे. सम्यक्
दर्शनवडे तो दर्शनमोहनो नाश थाय छे, ते पछी स्वरूपस्थिरतारूप चारित्रवडे चारित्रमोहनो नाश थाय छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए पण टूंकमां ए वात बतावी दीधी छे के–
‘कर्म मोहनीय भेद बे, दर्शन चारित्र नाम;
हणे बोध वीतरागता, अचूक उपाय आम.’
मोहकर्मना नाशनो आ अचूक उपाय छे के ‘बोध’ एटले के सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानवडे तो
दर्शनमोह हणाय छे, ने वीतरागतावडे चारित्रमोह हणाय छे.
समकिती धर्मात्मानी दशा
देहथी भिन्न चिदानंदतत्त्वनुं जेने भान थयुं छे, अने ए सम्यग्भानवडे जेणे दर्शनमोहनो तो नाश कर्यो
छे, एवा धर्मात्मा पछी स्वरूपमां स्थिरतारूप चारित्रदशानी भावना भावे छे. –
दर्शनमोह व्यतीत थई ऊपज्यो बोध जे,
देह भिन्न केवळ चैतन्यनुं भान जो;
तेथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकीए,
वर्त एवुं शुद्धस्वरूपनुं ध्यान जो.....
अपूर्व अवसर एवा क्यारे आवशे!
ज्ञानीने सम्यक् आत्मभान थतां ज अंतरमां निःशंकता आवी गई छे के अमारा आत्मामांथी मिथ्यात्वनो
तो नाश थई गयो छे, अने देहथी भिन्न जे चैतन्यतत्त्व ध्यानमां लीधुं छे तेमां एकाग्रताथी चारित्रमोह पण हवे
अल्पकाळमां क्षीण थई जशे. आत्मानुं अपूर्व भान थाय ने अंदरथी भवअंतना भणकार न आवे एम बने नहि.
ज्ञान थतां ज धर्मीनी दशा फरी जाय छे, आखी परिणति एकदम पलटो खाई जाय छे.–